तुलना ?
जैनाचार्य श्री ज्ञानचंद्र जी महाराज सा.
अगर आप सदा स्वयं की दुसरों के साथ तुलना करते रहते हैं तो आप अवश्य ही अहंकार या अवसाद के शिकार हो जाएंगे ।
आपको अपनी जिंदगी की दूसरों से तुलना करने की जरूरत नहीं है।
बल्कि अपने ढंग से जीने की जरूरत है ।
अगर आपसे नीचे वाला मिला तो आप उससे ढंग से बात नहीं करोगे । और आपसे कोई ऊपर वाला मिल गया तो वो आपसे ढंग से बात नहीं करेगा ।
तो आप में हीन भावना आएगी ।
तुलना कभी भौतिक साधनों से न कर सद्गुणों से करने की जरूरत है ।
सामने वाले में किसी के क्रोध करने के बावजूद भी क्षमा की भावना है तो आप भी उसे देखकर अपने क्षमा भाव को उससे भी अधिक विकास करिए।
अगर सामने वाला संपन्न होकर भी विनयवान है तो आप में उससे भी अधिक विनय बढ़ना चाहिए।
यह तुलना तो आपको विकासमान बनाने वाली होगी । कोई आपके भाग्य को मिटा नहीं सकता और उसकी जगह
नया लेख बिठा नहीं सकता ।
फिर क्यों परेशान होना है ।
हमें दूसरों से तुलना करने की बजाए अपने पुण्य को आगे बढ़ाने की जरूरत है ।
हमने 50 वर्ष पहले बचपन में एक मजदूर को देखा जो घर के बाहर बैठा है । मजदूरी करने के बाद खाना खा रहा है । उसने पोटली खोली उसमें 4 रोटी लुखी और मात्र दो हरी मिर्च थी ।
और एक लोटा छांछ थी ।
वो उसे भी बड़ा खुश होकर खा रहा था । जबकि उसी भवन में लोग गर्मा गर्म खाना उड़ा रहे थे।
लेकिन उसे कोई ईर्ष्या नहीं ।
यही कारण था कि उस चार रोटी और मिर्च में भी जो मजा आ रहा था, जो बंगले में बैठकर खाने वालों को नहीं आ रहा था ।
एक तो मजदूर को मेहनत के बाद लगने वाली भूख थी ।
दूसरी बात उसकी वो अन्य की थाली में नहीं झांक रहा था ।
आप जब भी तराजू खरीदते हैं तो उसमें सबसे महत्वपूर्ण बात देखते हैं कि तराजू के दोनों पात्र एकदम बराबर चाहिए । एक अंश भी ऊपर नीचे नहीं चाहिए ।
इसी तरह आप में भी समता आनी चाहिए । न राग न द्वेश तभी भीतर से आनंद फूटेगा ।
महिलाएं हो चाहे आप, किसी फंक्शन में जाते हो तो वहां क्या देखते हो कि दूसरा क्या पहन कर आया है । डेकोरेशन कैसा है । आदि ।
फिर अपने से तुलना करते हो ।
यहीं तरीका विषमता पैदा करता है ।
पिता हो या पुत्र या फिर पत्नी हो।
सभी को भारत सरकार ने अपने ढंग से जीने का हक दिया है ।
18 वर्ष बाद तो शादी करने का अधिकार भी बच्चों को सौंप दिया गया । सरकार ने स्वतंत्र निर्णय लेने की छूट दे दी ।
ऐसी स्थिति में चाहे व्यापार हो या अन्य कोई काम । समझाना बुजुर्गों का काम है । करना या नहीं यह बच्चों का ।
समझाने के बाद माने तो बहुत अच्छा,न माने तो बुजुर्गों को परेशान होने की जरूरत नहीं।
आपका कर्तव्य पूरा हुआ ।
आप परेशान न हो ।
भगवान महावीर स्वामी के समय भी भगवान का ही संसार पक्षीय जंवाई जमालि उनसे साधु बनकर भी अलग हो गया, अपना नया मत चलाया ।
क्या कर लिया भगवान ने ।
हो गया तो हो गया । कलयुग का संकेत उसी समय दे दिया गया।
प्रभु की बेटी प्रियदर्शना भी साध्वी बनने के बाद भी पति के अनुराग वश अपने पिता से अलग होकर पति जमालि के संघ में चली गई ।
चली गई तो चली गई ।
यह सब भविष्य के संकेत थे ।
लेकिन यह भी संकेत हुआ कि ढंक श्रावक ने प्रियदर्शना को समझाकर पुनः प्रभु के शरण में भेजा तो प्रभु महावीर ने प्रायश्चित देकर पुन: संघ में प्रवेश दिया ।
जिससे यह जाहिर कर दिया कि पूत, कपूत हो सकते हैं,पर माईत- कुमाईत नहीं होते ।
संतान के बूरा करने पर भी पिता, उसके लिए अच्छा ही चाहते हैं ।
हमने उदाहरण देखा है कि एक लड़की अपने पिता के लाख मना करने पर भी किसी अन्य लड़के से शादी कर ली । दो-तीन वर्ष बाद नहीं जमी तो पिता ने पुरानी बात भूलकर लड़की को अपने घर रखा और अच्छा लड़का ढूंढकर करोड़ों रुपए लगाकर उसकी दूसरी शादी कर दी ।
इसे कहते हैं योग्य पिता ।
जबकि लड़की ने जोश में आकर सबके सामने पिता का बहुत अपमान भी किया था, फिर भी पिता, सब कुछ भूलकर उसकी अच्छी जगह शादी करवाई ।
अतः भविष्य का यह संकेत भी प्रियदर्शना के उदाहरण से स्पष्ट हो रहा है ।
ढंक श्रावक का प्रसंग श्रावकों के माता पिता के कर्तव्य को स्पष्ट करता है ।
सत्संग जीना सिखाता हैं ।
जब नसीब अच्छा होता है तो अच्छी जगह आने की इच्छा होती है ।
मौसम, इतना प्रतिकूल होने पर भी आपका सत्संग में आना, आपके सद्भाग्य का परिचायक है।
जो आज का समय है वो लौटकर नहीं आता, उसे अच्छे से जीना सीख जाइए ।
धर्म प्रभावना
30 जनवरी को मौसम के प्रतिकूलता होते हुए भी उपस्थिति बनी रही ।रविवारीय प्रवचन से प्रभावित होकर जैनेत्तर भाई भी प्रवचन सुनने के लिए उपस्थित हुए ।
31 जनवरी का प्रवचन भी अग्रनगर जैन स्थानक में होना संभावित है ।
श्री अरिहंतमार्गी जैन महासंघ सदा जयवंत हों