सूर्य कभी अस्त नहीं होता
जैनाचार्य श्री ज्ञानचन्द्र जी म.सा.
भक्तामर स्तोत्र श्लोक नंबर 17
प्रार्थना- जीवन को सफल बनाना है, सत्संग का लाभ उठाना है।
जीवन को सफल बनाने के लिए लोकोत्तर पुरुष तीर्थंकर भगवंतो की भावात्मक सत्संग का प्रयास किया है। दुनियां में इससे श्रेष्ठ और कोई संगति नहीं हो सकती, क्योंकि शरीर में रहते हुए भी तीर्थंकर, अनंत ज्ञान-दर्शन-चरित्र आदि सभी गुणों में सर्वोत्कृष्ट है। सशरीरी की अवस्था में ऐसी विशेषता और कहीं भी इतनी उत्कृष्टता नहीं मिलती। केवली भगवान, छद्मस्थावस्था में नहीं, केवल ज्ञान प्राप्त होने पर भले ही 4 कर्म क्षयरुप समानता प्राप्त कर सकता है, परंतु तीर्थंकर 34 अतिशय 35 वाणी के गुणों के सहित 1008 लक्षण युक्त, छत्र धरावें आदि गुणों से युक्त होते हैं। ये सामान्य केवलियों में नहीं होता। अतः तीर्थंकर का स्वरूप बाह्य व आभ्यंतर दोनों ओर से लक्ष्यानुरूप पुण्य की उत्कृष्टता प्राप्त करता है। अगर सिर्फ बाहरी ही पुण्य हो किंतु अंतरंग का नहीं तो बेकार है। परंतु तीर्थंकर बाह्य व आभ्यंतर दोनों ओर से सर्वोत्कृष्ट है। तीर्थंकरों के भावात्मक सत्संग व्यक्ति को पुण्य की प्रकृति से बाहरी अतिशय भी देती है तो पुण्य को बढ़ाकर मोक्ष तक पहुंचाती है। इसीलिए तीर्थंकर का स्मरण सर्वोत्कृष्ट है। अतः आचार्य भगवन् भी तीर्थंकर का ही स्मरण करते हैं। शास्त्र में भी आता है- तथा रूप श्रमण माहण का नाम लेने से ही पुण्य कर्म उपार्जन होता है। यदि सिर्फ नाम लेने से ही पुण्य का उपार्जन होना कहा है तो स्तुति तो और महत्वपूर्ण है। इसी कड़ी के अंतर्गत आपको भक्तामर के श्लोक पर कुछ विचार 17 वीं गाथा के माध्यम से दिए जा रहे हैं।
नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः
स्पष्टीकरोषि – सहसा युगपज्जगन्ति ।
नाम्भोधरोदर-निरुद्ध-महाप्रभावः,
सूर्यातिशायिमहिमाऽसि मुनीन्द्र ! लोके ॥ १७ ॥
मुनीन्द्र! – हे मुनीश्वर (आप)
कदाचित् – कभी भी
अस्तम् – अस्त अवस्था को
न – नहीं
उपयासि – प्राप्त होते हो
न- न
राहुगम्य: – राहु ग्रह के द्वारा ग्रसने योग्य (राहु नवग्रहों
में एक ग्रह है जो सूर्य तथा चन्द्रमा के ऊपर
संक्रमण काल में अपनी छाया डालता है।
तब उनका ग्रहण हुआ माना जाता है।)
असि – हो
न- न ही
अम्भोधरोदर- बादलों के उदर में जिसका महाप्रभाव
निरुद्धमहाप्रभावः- अवरुद्ध हो सका है (अतः)
लोके- इस लोक में
सूर्यातिशायि महिमा- सूर्य से भी अधिक महिमा को आप धारण करने वाले
असि- हो
मानतुंग आचार्य, प्रभु को इंगित करके बोल रहे हैं। हे प्रभो! आप सूर्य हो। पर वह सूर्य नहीं जो सुबह उदित होता है शाम को अस्त हो जाता है। वह सूर्य तो एक दिन में ही कम से कम तीन अवस्थाएं धारण करता है। बाल सूर्य, मध्यान्ह सूर्य, अस्त सूर्य। परंतु भगवन्! आपका सूर्य ऐसा नहीं है। यह सूर्य तो पिंडात्मक है, पुद्गलात्मक है , इसमें रहा इंद्र परिवर्तनशील है कर्म आधीन है उतार-चढ़ाव आना ही है। पर आप स्वस्थ हैं, आपका सूर्य कर्माधीन नहीं है। आपके सूर्य की पिंडावस्था या पुद्गलावस्था नहीं है । शरीर की जीर्णता, क्षीणता समाप्ति आपके सूर्य में नहीं है। एक बार उदित हो गया फिर कभी अस्त नहीं होता। महारानी विक्टोरिया का शासन सुना होगा, उनके शासन में कभी अंधेरा नहीं, यानी रात नहीं आई तो क्या कारण ? वह सूर्य को तो नहीं पकड़ती। उसके शासन का विस्तार लंबा था । उसके शासन में अन्याय नहीं था । अंधेरा मिथ्यात्व का प्रतीक है, अज्ञान का मोह का प्रतीक है, पतन का कारण है। यह उक्ति व्यवहारिक जीवन में लोग बोलते थे, कि विक्टोरिया के जीवन में अंधेरा नहीं होता । एक बार विक्टोरिया बग्गी मैं बैठकर कहीं जा रही थी । सामने से एक आदमी हाथ में बच्चे का मुर्दा शरीर लेकर जा रहा था। उसके साथ में कोई नहीं था। महारानी ने पूछा लोगों से की यह कौन है? कहां जा रहा है! तो लोगों ने कहा ये गरीब है, बच्चे को जलाने के लिए जा रहा है इसका कोई नहीं है। इसलिए यह अकेला ही जा रहा है। विक्टोरिया के अंदर में मानवता जगी । सारथी को कहा रथ मोड़ो मैं जाऊंगी इसके साथ श्मशान में। रथ मोड़ दिया गया । असेंबली में मिनिस्टर इंतजार कर रहे। पर महारानी पहुंच गई श्मशान में। तो आसपास के सारे लोग भी उनके पीछे-पीछे पहुंच गए यानि वहां भीड़ इकट्ठी हो गई। क्योंकि महारानी वहां गई है! जो अकेला गया था, वहां भारी भीड़ उसके साथ हो गई। इसे कहते हैं- नास्तं। कभी अस्त नहीं होने वाला। उसके गुणों की स्मृति, उसकी पूजा आज भी उदित है । वह चली गई फिर भी वह आज भी जिंदा है । क्योंकि उसने अपनी जिंदगी में कई ऐसे कार्य किए, जिससे वह कभी अस्त न हो सके। हर चीज जो आती है वह शरीर से जाती है। गुणों से जीवित है। हे प्रभो! तुम्हारा गुण, तेज, शक्ति, आत्मीयता का लगाव एक दूसरे के साथ, एगे आया के रूप में अभेद संबंध, आज भी कायम है। अतः तुम कभी अस्त होने वाले सूर्य नहीं हो। प्रकाश आता है तो अंधेरा जाता है। गर्मी आती है, तो सर्दी जाती है । वैसे ही ज्ञान आता है तो अज्ञान जाता है। अज्ञान के जाने से ज्ञान आता है परंतु जो ज्ञान, अज्ञान के जाने से होता है । वह फिर कभी अज्ञान में पलट सकता है। उसे खराब विकृत बना सकता है। 14 पूर्वों का ज्ञान करते हुए भी व्यक्ति गलत काम कर लेता है, झंझावात आता है उनमें। पर प्रभो! आपका ज्ञान ऐसा नहीं है। णाणस्स सव्वस्स पगासणाए,अण्णाण मोहस्स विवज्जणाए। ज्ञान का संपूर्ण प्रकाश सिर्फ अज्ञान के हटने से नहीं होता । इसके साथ मोह भी टूटना होगा। इसलिए केवलज्ञान की प्राप्ति शीघ्र नहीं होती। सिर्फ ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय होने से ही केवल ज्ञान नहीं होता। मोह क्षय होगा, तो ही केवल ज्ञान होगा। यदि मोह क्षय नहीं हुआ है तो चाहे व्यवहारिक ज्ञान हो या आध्यात्मिक ज्ञान। यह मोह सब को नष्टकर देगा। कपिल को पढ़ने एक सेठ ने अनुदान देकर रख लिया। उसे खाना देने रोज एक दासी आती थी। रोज रोज दासी के आने से मोह पैदा हो गया। मोह पैदा होते ही ज्ञान बंद हो गया। अतः अज्ञान जाने से ही ज्ञान पैदा नहीं होता। आप देखते हैं आपकी जनरेशन, जो विलासिता में भाग रही है। उनके ज्ञान को मोह का राहु ग्रस रहा है । वह ज्ञान को अज्ञान में बदल देता है। मोह का मतलब सिर्फ आसक्ति नहीं है। मोह का राहु क्रोध, मान, माया, ईर्ष्या आदि सभी से जुड़ा है। क्रोध आ गया तो भी ज्ञान को डस लेगा। अहंकार भी ज्ञान को डसता है। अहंकार आने पर भी ज्ञान पैदा नहीं हो सकता। आपने सुना होगा- एक चांडाल को दो विद्याएं आती थी। श्रेणिक सीखना चाहता था। परंतु अहंकार राहु नहीं हटे, तब तक ज्ञान आवे कैसे? राजा खुद सिंहासन पर बैठे थे। हरिजन नीचे बैठा। अब बार-बार बोलने पर भी राजा को आ नहीं रहा। तो राजा ने कहा- अच्छे से बोल मेरा दिमाग इतना कमजोर नहीं की याद न हो। परंतु राजा को अहंकार राहु ग्रस रहा था तो सूर्य का प्रकाश कैसे हो? आखिर बुद्धि निधान अभय कुमार ने कहा- राजन! अहंकार छोड़ो नीचे उतरो। वर्तमान में यह हरिजन आपको विद्या सिखा रहा है। अतः यह गुरु है और गुरु का आसन ऊपर होना चाहिए। तुरंत राजा श्रेणिक नीचे उतरे। हरिजन को सिंहासन पर बिठा दिया। अब विनयपूर्वक सीखने लगा तो एक बार बोलने से ही याद हो गया। कुंडरीक का क्या हुआ? मोह के कारण ध्यान साधना में, ज्ञान ध्यान में मन नहीं लगा । इस मोह ने डस लिया। यह अस्त होने वाला ज्ञान है। मोह ने ज्ञान पर अटैक कर दिया। ऐसा अस्त होने वाला ज्ञान नहीं चाहिए। अस्त होने वाला तप संयम नहीं चाहिए। आप ऐसे सूर्य नहीं हो भगवन्! आपमें मोह का पूर्ण रूप से क्षय होते ही, ज्ञानावरणीय,दर्शनावरणीनीय,अंतराय कर्म भी क्षय हुआ और केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनंत शक्ति प्राप्त हुई। भगवान ने शूलपाणी यक्ष का दमन किया। शूलपाणी यक्ष के सामने जो आता उसी को मार देता। भगवान के भी सामने आकर खड़ा हो गया, भयंकर उपसर्ग दिए। कभी हजारों चीटियां बन एक साथ डंक लगाया तो कभी गरम-गरम रेत बन, तो कभी हाथी बनकर ऊपर उछाला, तो कभी बिच्छू बन डंक मारे। अनेक उपसर्ग दिए फिर भी भगवान डिगे नहीं अडिग रहे, अपनी साधना में, ध्यान में। ऐसे राहु उन्हें नहीं डिगा सकते । वह शूलपाणी यक्ष तीन पहर तक लगातार कष्ट देता रहा। परंतु भगवान अडिग रहे तो चौथे पहर में वही शूलपाणी यक्ष भगवान की भक्ति मधुर मधुर वाणी से करने लगा। लोगों ने सोचा कि अब तक तो वह साधु मर गया होगा। जब भगवान उधर जा रहे थे। तभी लोगों ने रोका था कि आप उधर मत जाइए वहां जाने पर वापस नहीं लौट सकोगे। फिर भी भगवान गए तो लोगों ने कहा- मरा ही मिलेगा अब तो। परंतु सुबह-सुबह मधुर मधुर आवाज में भक्ति करते हुए देवता की आवाज आने लगी। देवता की आवाज में वैसे ही मिठास होती है फिर प्रभु भक्ति में तल्लीन थे । यह आवाज सुन लोग भी बाहर आने लगे। देखा यह मारने वाला तो भक्ति कर रहा है। देख कर आश्चर्यचकित हुए तो उसने कहा अब आप मेरे से मत डरिए। अब कोई डर वाली बात नहीं है। भगवान ऋषभदेव को 12 महीने तक भूखा प्यासा रहना मंजूर। पर क्या कभी इन कर्मों के उदय ने उन्हें अपने सिद्धांत से नीचे गिराने का प्रयास किया नहीं। जो छद्मस्थावस्था में भी डिगते नहीं। संयम में इतने मजबूत हो तो उन का केवल्यावस्था में क्या कहना? सारी दुनियां एक तरफ और एक तरफ अकेले तीर्थंकर हो फिर भी सारी दुनियां की ताकत उन्हें हरा नहीं सकती। कहते हैं तीर्थंकर में इतनी शक्ति होती है कि संपूर्ण लोक को गेंद की तरह हाथ से उठाकर अलोक में फेंक दें। मोह एक ऐसा राहू है जो विश्वामित्र आदि जैसे ऋषि-मुनियों पर भी अटैक कर दिया। यह एक ऐसा राहू है जो बड़े-बड़े महात्मा को भी संसार में धक्का मार देता है। विश्वामित्र का क्या हुआ? रहनेमि भी फिसल गए इसीलिए कहते हैं मोह छोड़ो। यह मोह सम्यक दर्शन व सम्यक ज्ञान से हटा देगा। इस आत्मा में कभी क्रोध की, कभी मान की, कभी माया व कभी लोग की कभी ईर्ष्या की आग उठ रही है। अतः हमें अंदर की शक्ति जगाकर प्रभु की भक्ति करना है। भक्ति करने पर भी भगवान कुछ देते नहीं, क्योंकि राग द्वेष उनमें नहीं है। फिर भी उनकी भक्ति में इतनी शक्ति जगती है। कि वह राहु हमें ग्रसित न कर सके। हम देखें, हमारे अंदर कहीं क्रोध, कहीं मान, कहीं ईर्ष्या तो नहीं आ रही है, यदि आ रही है तो मान लो वह सूर्य अस्त होने वाला है। हम चाहते हैं, हमारे अंदर सद्गुण उठे, ज्ञान के चिंगारी जले। अतः प्रभु की भक्ति सही ढंग से करें । अरिहंत खुश होते नहीं, खुश होवे तो राग होता है। परंतु उनमें राग भी नहीं द्वेष भी नहीं। भक्ति करने से हमारी शक्ति इतनी मजबूत बनती है कि यह राहु भी हमें ग्रसित ना कर सके, हम एक दिन मोक्ष तक पहुंच जाएंगे। यदि कहीं क्रोध की, कहीं मोह की भावना आ रही है तो समझो यह राहु से ग्रसित हो रहे हैं, यह अस्त होने वाला सूर्य है। हम इस भव में ही यदि हैं तो आगे जाने के बाद पीछे से कौन याद करेगा? दुनियां में याद उन्हें ही करते हैं जो कुछ अच्छे काम कर जाते हैं। गुरुदेव फरमाया करते थे- एक मालू जी थे वे हमेशा जब भी साधु संत गांव में आते तो वे प्रार्थना में आते। और मांगलिक सुनकर किनारे खड़े हो जाते और ध्यान लगाते कि यहां सबसे गरीब कौन है? स्थानक से बाहर निकलते ही उसके पास जाते और जय जिनेंद्र कहते। उससे प्रेम से बात करते। आप किसको ढूंढते हैं- मोटे पैसे वाले आदमी को उससे बात करेंगे। परंतु मालू जी हमेशा गरीब व्यक्ति को ढूंढते और उसे किनारे एक तरफ ले जाते, हाथ फेरते और धीरे-धीरे कहते। हमारे घर में बहुत गाय भैंस है। अतः तुम बच्चों को छांछ लेने भेज दिया करो। गरीब व्यक्ति सोचने लगा- ऐसे तो शर्म आती है, पर जब ये स्वयं बोल रहे हैं तो भेज देंगे। वे अपने बच्चों को भेजते तो सेठ जी घर पर बच्चों को अंदर भेजते। उन्हें नाश्ता करवाते और कहते तुम्हारे बर्तन दे दो। मैं छांछ डाल देता हूं । सेठ जी बर्तन ले जाते उसमें मुट्ठी भर चांदी के सिक्के डालकर फिर छांछ से भर देते। कई लोग तो वापिस सिक्के लाकर देते। जब छांछ निकालते तो। परंतु सेठ जी कहते- नहीं नहीं ले जाओ यह मेरे नहीं है। तुम तो काम लो । किसी को कहना मत। ऐसे थे गुण । ऐसे गुणों का सूर्य कभी अस्त नहीं होने वाला है अतः कहा है- ण इह लोगट्ठयाए तव महिठिज्जा,न परलोग ट्ठयाए तव महिठिज्जा——। ण इहलोग परलोग ट्ठयाए तव महिट्ठिज्जा, णो कित्तिवण्ण सिलागाए तव महिट्ठिज्जा। णन्नाथ निज्जरट्ठयाए तवमहिठ्ठिज्जा। इस लोक के लिए, परलोक की कीर्तिस्लाघा के लिए तप मत करो। एकमात्र कर्म निर्जरा के लिए अच्छे गुणों को अपनाकर आत्म साधना करो, तप करो । भारत के राष्ट्रपति राधाकृष्णन थे। उनके पास एक पत्र आया गरीब व्यक्ति का। कि छात्रवृत्ति चाहिए। सोचा राधाकृष्णन संवेदनशील है। पत्र लिखा कि मैं गरीब हूं। पिता नहीं है मैं आगे देश की सेवा करने की भावना रखता हूं। पत्र भेजा। परंतु कई दिनों के इंतजार के बाद भी जवाब नहीं आया। वह कॉलेज खुलते ही गया तो लेक्चरर ने कहा तेरे नाम से फीस जमा हो चुकी है। पूछा कहां से आई है, किसने जमा कराई? तो कहा राष्ट्रपति की ओर से जमा करवाई गई है । लाल बहादुर शास्त्री- पत्नी के साथ गए बाजार में। पत्नी के लिए साड़ी खरीदनी थी। दुकानदार से कहा- कम पैसे वाली साड़ी दिखाओ । दुकानदार ने कहा- आप तो ऐसे ही ले जाइए। नहीं! हम राष्ट्र का पालन करने के लिए हैं। राष्ट्र को खाने के लिए नहीं। शास्त्री जी के लड़के ने एक बार जिद्द की, गाड़ी लेनी है। शास्त्री जी ने बैंक से लोन लिया और गाड़ी खरीद कर दी। वह लॉन पूरा चुकाया नहीं, उससे पहले ही शास्त्री जी का देहांत हो गया। तब मिनिस्टर लोग पहुंचे और उनकी पत्नी से कहा कि लॉन रहने दीजिए, ऐसे ही माफ हो जाएगा । परंतु शास्त्री जी की पत्नी ने कहा- जिन सिद्धांतों के प्रति पतिदेव अंत समय तक झूंझते रहे, मैं उन्हें कैसे तोड़ सकती हूं। पत्नी ने भी बेमानी नहीं की और उसके बाद जो पेंशन मिलता उससे लॉन भरा। अगर तीर्थंकरों का नाम लेकर तस्कर ठगाई करना चाहते हैं तो राहु से ग्रसित हो जाएंगे। नास्तं कदाचिदुपयासि न राहु गम्य——। अगर इस तरह हमारा सूर्य अस्त न हो, राहु गम्य न हो तो ऐसा सूर्य तीन लोक को एक साथ प्रकाशित करता है । तीन लोक में कोई शक्ति ऐसे ही नहीं जो उन्हें रोक सके। अचानक भी कोई उन पर वार नहीं कर सकता। यह ज्ञान सहसा प्रकाशित है। हम मकान बना रहे हैं, पैसा इकट्ठा कर रहे हैं, क्या यह राहु नहीं है? आपके सामने ही कभी आपका बेटा गया, कभी पोता गया, हम उससे परेशान हो रहे हैं। क्यों नहीं समझते कि हमारी आत्मा को सही बनाएं । तब जाकर हम अपनी आत्मा को उत्कृष्टता तक पहुंचा पाएंगे। एक न एक दिन हमारी लौ अवश्य ही परमात्मा तक पहुंच जाएगी। आज लोग मोह के कारण न तो खुद अच्छा काम करते हैं न ही किसी को करने देते हैं। कोई दान खुद देवें नहीं और कोई देवे तो उसे देने देते नहीं, कि इसका नाम हो जाएगा। जो दान देता है, वह कहे या ना कहे दुनियां कहती है। सुगंध स्वयं फैलती है। परंतु हम तो यह चाहते हैं कि हमारा बंगला अच्छा बने, फैक्ट्री अच्छी चले । बाकी दुनियां भले मरे। यदि हम भी यह सोचें कि हम भी दुनियां के लिए जीएं और जो आगे बढ़े उन्हें सहयोग देवें तो हमारा सूर्य भी कभी राहु से ग्रसित नहीं होगा। सूर्यातिशायी महिमासि मुनीन्द्र लोके— । हे मुनींद्र! इस लोक में तुम्हारी महिमा सूर्य से भी बढ़कर है। सूर्य तो बादल से ढंक जाता है पर आप सूर्य से भी अतिशयधारी हैं। यह समय साध्य प्रक्रिया है। इसे जीवन के साथ जोड़ेंगे तो जीवन सही बनेगा और हम महान् स्तर को छू सकेंगे । उपदेश पहले साधु-साध्वी को है, फिर श्रावक श्राविका को है। अतः आप और हम समझें।
धर्म प्रभावना
27 जनवरी को उधमसिंह नगर से करीब 9 किलोमीटर का विहार कर साउथ सिटी जनपथ विला में नररत्न श्री राकेश जी राहुल जी जैन के बंगले पर पधारे ।
आज दिल्ली से वीर पिता श्री अमरचंद जी मेहता सपरिवार दर्शनार्थ उपस्थित हुए ।
एवं दिल्ली से महिलारत्न श्री प्रोमिला जी जैन गुरु चरणों में पहुंचे ।
श्री अरिहंतमार्गी जैन महासंघ सदा जयवंत हों