30 दिसंबर कपुरथला

30 दिसंबर कपुरथला
जैनाचार्य श्री ज्ञानचन्द्र जी म.सा.
भक्तामर किसकी स्तुति है..?
जैन समाज के मुख्य रूप से चार विभाग हैं- दिगंबर,मूर्तिपूजक, स्थानकवासी और चौथा तेरापंथी।
एक नग्न रहते हैं ,दूसरे मुख वस्त्रिका हाथ में रखते हैं, तीसरे मुख्यवस्त्रिका चौड़ी और मुंह पर रखते हैं । चौथे जो तेरापंथी है वे मुखवस्त्रिका लंबी रखते हैं ।
चारों के भी भेद- प्रभेद गच्छ, मत, पंथ, संप्रदाएं पचासों है ।
यह ऊपरी, भिन्नता दिखाई देती है
लेकिन सभी भगवान के रूप में महावीर स्वामी को, सूत्र के रूप में तत्वार्थ सूत्र को, मूल व्रतों के रूप में पांच सिद्धांत और स्तोत्र में भक्तामर स्तोत्र को सर्व सम्मत मान्यता देते हैं ।
भक्तामर स्तोत्र को मानने वाले करीब करीब सभी इसे आदिनाथ के रूप में ऋषभदेव भगवान की स्तुति मानते हैं ।
लेकिन कुछ विचार करने पर पता चलता है कि यह अकेले ऋषभदेव भगवान की ही स्तुति नहीं है । बल्कि सभी तीर्थंकरों और सभी सिद्धों,सर्वज्ञों की स्तुति है ।
इसमें “प्रथमं जिनेन्द्रं” शब्द आया है । उसको लेकर अगर हम प्रथम जिनेंद्र के रूप में ऋषभदेव को मानते हैं तो एक देशीय अर्थ हुआ।
क्योंकि सभी तीर्थंकर अपने आप में प्रथम है कोई तीर्थंकर किसी का उपदेश नहीं सुनता, कोई तीर्थंकर किसी से दीक्षा नहीं लेता । वो स्वयं दीक्षित होते हैं, और स्वयं ही साधना करके केवल ज्ञान पाकर जनता को उपदेश देते हैं । इस दृष्टि से हर तीर्थंकर प्रथम है ।
हम 24 तीर्थंकरों का नाम एक साथ नहीं बोल सकते हैं । इसलिए एक के बाद एक बोलते हैं ।
असत कल्पना से चिंतन किया जाए कि अगर 24 ही तीर्थंकर, जो सिद्ध हो चुके हैं, वो आपके सामने खड़े हो जाएं तो वो एक के पीछे एक खड़े न होकर एक बराबर खड़े होंगे । क्योंकि सब प्रथम हैं । अप्रथम कोई है ही नहीं।
दूसरी बात संस्कृत में “प्रथ”धातु का अर्थ प्रसिद्ध अर्थ लिया जाता है । सभी तीर्थंकर प्रसिद्ध हैं, शाश्वत हैं जो एक बार अरिहंत बनकर सिद्ध बन जाते हैं, वो कभी वापस नीचे नहीं आते ।
सभी तीर्थंकर धर्म की आदि करने वाले होते हैं । क्योंकि वे जो भी प्ररुपणा करते हैं । किसी की सुनकर नहीं, बल्कि स्वयं ज्ञान पाकर करते हैं । इसीलिए णमोत्थुणं में सभी को आइगराणं धर्म की आदि करने वाले कहा है।
दूसरी बात भक्तामर के 38 वें श्लोक से लेकर 48 वें श्लोक तक के श्लोकों में जो व्याख्या की गई है, एरावत हाथी हो, चाहे शेर हो, चाहे भयंकर नाग सामने आ जाए भयंकर तूफान आए कुछ भी घातक स्थिति सामने आ जाए लेकिन जो आपका- अरिहंतों का भक्त है, उनका वो कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते ।
यह जो स्थिति है वो सिद्धों के साथ, श्रद्धा के साथ तो घट सकती है, पर प्रैक्टिकल कैसे हो सकता है । क्योंकि सिद्ध अशरीरी हैं ।
उनकी भक्ति करने से कोई देवता प्रभावित होकर भक्त का सहयोग कर दे, ठीक कर देवें तो हो सकता है लेकिन अरिहंतों के तो आत्मा में अनंत शक्ति होने के साथ शरीर भी है । उस पवित्रतम,अनंत शक्ति का संस्पर्श पाकर मन,वचन, काया के परमाणु पुद्गल जो बाहर निकलते हैं । उनमें इतनी अधिक शक्ति होती है कि वो भक्तों को बड़े से बड़े संकट से बचा लेते हैं।
जिस प्रकार इंसान द्वारा फिट सेंसर,जब इंसान को बचा सकते हैं तो यह तो तीर्थंकरों द्वारा फीट किए गए सेंसर हैं । यह स्थिति अरिहंतों में ही घटित होती है।
इसीलिए नवकार महामंत्र में भी पहला पद “णमो अरिहंताणं” का कहा है । छद्मस्थों का अरिहंतों से सीधा संपर्क हो सकता है । क्योंकि अरिहंत भी सशरीरी हैं और हम भी सशरीरी हैं ।
ऋषभदेव भगवान इस समय में सिद्ध हैं । उनके मन, वचन काया नहीं है अतः उनकी आत्मा का किसी भी पुद्गलों से संस्पर्श नहीं होता जिससे वो पुद्गल प्रभावी नहीं बन पाता।
अर्जुनमाली के शरीर में रहे मुद्गर पाणि यक्ष से बचाव, सुदर्शन सेठ का कैसे हुआ ?
कोई देवता उन्हें बचाने नहीं आया।
बल्कि भगवान महावीर राजगृह से गुणशील बगीचे में पधार गए थे।
उनके शुद्ध परमाणुओं के नेटवर्क ने शूलपाणि की शक्ति क्षीण कर दी । यह सुदर्शन के लिए ही क्यों हुआ…?
इसका मुख्य कारण, भगवान के प्रति असीम भक्ति का 1 लाख पॉवर का बल्ब जो उनके पास था, उसने तीर्थंकर से जुडे परमाणुओं को कैच कर लिया ।
जिन्होंने बहुत बड़ा सुरक्षा कवच खड़ा कर दिया ।
इसके लिए देवताओं की कोई जरूरत नहीं होती ।
यह सब अरिहंतो के पुद्गलों में असीम शक्ति होती है जो 25-25 योजन याने 100-100 कोश के चारों तरफ की दूरी में हो रहे उपद्रवों को शांत कर देती है ।
बल्कि पूरे विश्व में भी शांति फैलाती है ।
तीर्थंकरों के जन्म पर पूरे विश्व में एक बार कुछ क्षण के लिए शांति फैलती है ।
वो देवता नहीं फैलाते । बल्कि तीर्थंकरों के शरीर के शुद्धतम परमाणु फैलाते हैं ।
यह सब वर्तमान के तीर्थंकरों के साथ तो घट सकता है ।
इसलिए भक्तामर स्तोत्र में प्रथमं जिनेद्रं याने कि प्रथम जिनेंद्र-याने पहले तीर्थंकर तो अब, पहले तीर्थंकर हैं- महाविदेह क्षेत्र में विचरण करने वाले बीस विहरमान ।
इस समय पहले वो ही हैं ।
ऋषभदेव आदि 24 तीर्थंकर तो हो चुके और जो होने वाले हैं वो सामने नहीं है । अभी जो सामने पहले तीर्थंकर है वो है- 20 विहरमान, दो करोड़ केवली और 9 करोड़ केवली ।
ये सब अरिहंत है,इनकी भक्ति ही भक्तामर के स्तोत्र का मुख्य अभिप्रेत है ।
दूसरी बात भक्तामर के श्लोक का जो प्रचलित अर्थ किया गया है वह भी युक्ति युक्त कम बैठता है,
जैसा कि पहला ही श्लोक ले लीजिए-
भक्तामर प्रणत मौलि मणि प्रभाणा
मुद्योतकं दलित पाप तमो वितानम्
अर्थ- भक्त अमर-देवता, जिनेंद्र के चरणों में प्रणत-झुकते हैं ।
तब मौलि याने उनके मुकुट की मणि की प्रभा को और अधिक उद्योतित करने वाले हैं । जिन पाद याने कि जिनेश्वरों के पैर ।
फिर आगे लिखा है- दलित पाप तमो वितानम् ।अर्थात् पाप रूप अंधकार का नाश करने वाले ।
सोचने की बात है, प्रकाश बढ़ाएं, देवता के मुकुट की मणि की प्रभा का, और नाश हो पाप का । यह दोनों अर्थ संगत नहीं है।
इसे एसे बिठाया जाए ।
भक्तामर याने मानव भक्त ।
अमर का मतलब जो मरता नहीं।
एक मानव भव ही ऐसा है जिससे सीधा मोक्ष जाया जा सकता है । भव परमित किए जा सकते है ।
84 योनियों में सर्वश्रेष्ठ योनि भी मानव की ही है,तो तीर्थंकरों के तो दुनिया की श्रेष्ठ वस्तुएं लगती है।
तो फिर भक्त भी दुनिया का सर्वश्रेष्ठ ही हो ।
और वह है- इंसान मनुष्य।
सच्चा भक्त कभी मरता नहीं जो मरता है वह भक्त नहीं ।
सच्चा भक्त सुदर्शन सेठ था, तो अर्जुनमाली उसे मार नहीं सका।
अपनी आयु पूरी करके तन से चला भी गया । तब भी सुदर्शन सेठ ढाई हजार वर्ष के बाद भी भव्यात्माओं के दिलों में जिंदा है आगे भी मोक्ष हो जाएगा तो अमर हो गया।
ऐसा भक्त जब जिनेश्वरों के जिनपाद-श्रुत-चरित्र रूपी चरणों में झुकता है तो मानव तन का मुकुट है- मस्तिष्क ।
उसकी मणि है-मस्तिष्क का ज्ञान केंद्र ।
तृतीय नेत्र । भगवान के श्रुत चारित्र रूप चरण की साधना में झुकने से उस मानव का ज्ञान और भी अधिक सम्यक् होता है ।
उससे उसका पाप रूप अंधकार दूर होता है ।
यह अर्थ ही अधिक संगत लगता है।
ऐसे ही आगे सभी श्लोकों के अर्थ भी विमर्शणीय है । हमने कोशिश की है, अपने क्षयोपशमानुसार अर्थ प्रस्तुत करने की । यह रिसर्च करीब 25 वर्ष से चल रही है ।
परम पूज्य गुरुदेव आचार्य प्रवर श्री नानालाल जी महाराज सा.के सामने भी चली तो उन्होंने इस नवीनीकरण अर्थों का समर्थन किया इसे सही बतलाया ।
इसके बाद तो कई मूर्धन्य संतों, विद्वानों से भी चर्चा हुई वो भी इन अर्थों को समझने के बाद समर्थन देने लगे थे ।
यह सब अर्थ तो पूरे भक्तामर की पुस्तक को पढ़ने के बाद आपको भी लग जाएगा ।
आप अवश्य अवश्य स्वाध्याय करें।
एक बात और जो तीर्थंकरों के 34 अतिशय और 35 वचनातिशय बतलाए हैं । वो भी इस बात को प्रमाणित करते हैं कि यह अतिशय तीर्थंकरों के हैं,सिद्धों के नहीं ।
हम आपके सामने वे अतिशय भी संकलित करके प्रस्तुत कर रहे हैं।
आप वो भी ध्यान से पढ़ें तो आपको लग जाएगा।
ये अतिशय तभी संभव है कि जब वो शरीरधारी हो ।
शरीरधारी ही तीर्थंकर इस समय 20 विहरमान हैं ।
उनसे निकलने वाले परमाणु- पुद्गल विश्वव्यापी बनकर भक्ति करने वाले भक्तों के तन मन- आत्मा को प्रभावित करके स्वास्थ्य,पुष्ट बनाते हैं ।
आत्मा को परमात्मा की दिशा में आगे बढ़ाते हैं ।
पढ़िए अतिशय-
सर्व साधारण में जो विशेषता नहीं पाई जाती, उसे अतिशय कहते हैं।
अरि- हन्त में ऐसी चौतीस मुख्य विशेषताएं होती हैं । यह विशेषताएं या अतिशय कुछ जन्म से ही होती हैं, कुछ केवलज्ञान की प्राप्ति के पश्चात होती हैं। वे इस प्रकार:-
[१] मस्तक आदि समस्त शरीर के बालों का मर्यादा से अधिक ( बुरे लगें ऐसे) न बढ़ना
[२] शरीर में रज मैल आदि अशुभ लेप न लगना ।
[३] रक्त और मांस,गौ दूध से भी अधिक उज्ज्वल-धवल और मधुर होना ।
[४] श्वासोच्छवास में पद्म-कमल से भी अधिक सुगन्ध होना ।
[५] आहार और निहार चर्मचक्षु वालों द्वारा दिखाई न देना ( अवधिज्ञानी देख सकता है)
[६ [ जब भगवान् चलते हैं तो आकाश में गररणाट शब्द करता हुआ धर्म चक्र चलता है और जब भगवान् ठहरते हैं तब ठहरता है ।
७] भगवान् के सिर पर लम्बी-लम्बी मोतियों की झालर वाले एक दूसरा और दूसरे के ऊपर तीसरा इस प्रकार तीन छत्र प्राकाश में दिखाई देते हैं।
[८] गौ के दूध और कमल के तन्तुओं से भी अधिक अत्यन्त उज्ज्वल बाल वाले,तथा रत्नजड़ित डण्डी वाले चमर भगवान के दोनों तरफ ढोरे जाते हुए दिखाई देते हैं।
[९] स्फटिक मणि के समान निर्मल देदीप्यमान, सिंह के स्कंध के आकार वाले रत्नों से जड़े हुए, अन्धकार को नष्ट करने वाले, पादपीठिकायुक्त सिंहासन पर
भगवान् विराजे हुए हैं, ऐसा दिखाई देता है।
[१०] बहुत ऊंची रत्नजड़ित स्तम्भ वाली और अनेक छोटी-छोटी ध्वजाओं के परिवार से वेष्टित इन्द्रध्वजा भगवान् के आगे दिखाई देती है।
[११] अनेक शाखाओं और प्रशाखाओं से युक्त पत्र, पुष्प फल एवं सुगन्ध वाला भगवान् से बारहगुना ऊंचा अशोक वृक्ष भगवान् पर छाया करता हुआ दिखाई देता है।
(१२) शरद ऋतु के जाज्वल्यमान सूर्य से भी बारह गुने अधिक तेजवाला अन्धकार का नाशक प्रभामण्डल अरिहन्त के पृष्ठ भाग में दिखाई देता है ।
(१३) तीर्थंकर भगवान् जहाँ-जहाँ विहार करते हैं वहाँ की जमीन गड़हे या टीले आदि से रहित सम हो जाती है।
(१४) बम्बूल आदि के काटे उल्टे हो जाते हैं, जिससे पैर में चुभ न सके।
(१५) शीतकाल में उष्ण और उष्णकाल में शीत वाला सुहावना मौसम बन जाता है ।
(१६) भगवान् के चारों ओर एक-एक योजन तक मन्द मन्द शीतल और सुगन्धित वायु चलती है, जिससे सब अशुचि वस्तुएं दूर चली जाती हैं ।
(१७) भगवान् के चारों ओर बारीक-बारीक सुगन्धित अचित्त जल की
वृष्टि एक-एक योजन में होती है जिससे धूल दब जाती है ।
(१८) भगवान् के चारों ओर देवताओं द्वारा विक्रिया से बनाये हुए अचित पांचों रंगों के पुष्पों की घुटनों प्रमाण वृष्टि होती है। उन पुष्पों का टेंट (डंठल ) नीचे की तरफ और मुख ऊपर की ओर होता है।
(१९) अमनोज्ञ (अच्छे न लगने वाले) वर्ण, रस, गंध और स्पर्श का नाश होता है।
(२०) मनोज्ञ वर्ण गंध रस और स्पर्श का उद्भव होता है।
(२१) भगवान के चारों ओर एक-एक योजन में स्थित परिषद् बराबर धर्मोपदेश सुनती है और वह धर्मोपदेश सभी को प्रिय लगता है।
(२२) भगवान् का धर्मोपदेश अर्धमागधी (आदि मगध देश की और आदि अन्य देशों की मिश्रित) भाषा में होता है।
(२३) अनार्य देश और अनायं देश के मनुष्य, द्विपद (पक्षी), चतुष्पद
(पशु) और अपद (सर्प आदि) सभी भगवान् की भाषा को समझ जाते हैं
(२४) भगवान का दर्शन करते ही और उपदेश सुनते ही जाति-से (जैसे सिंह और बकरी का, कुत्ता और बिल्ली का) तथा भवान्तर ( पिछले जन्मों) का वैर शांत हो जाता है
(२५) भगवान् का प्रभावपूर्ण और अतिशय सौम्य स्वरूप देखते ही अपने- अपने मत का अभिमान रखने वाले अन्य दर्शनी वादी अभिमान को त्याग कर नम्र बन जाते हैं।
(२६) भगवान् के पास वादी वाद करने के लिये आते तो हैं किन्तु उत्तर देने में असमर्थ हो जाते हैं। (२७) (भगवान् के चारों तरफ २५-२५ योजन तक) ईति-भीति अर्थात टिड्डी और मूषकों आदि का उपद्रव नहीं होता ।
(२८) महामारी हैजा आदि का उपद्रव नहीं होता।
(२९) स्वदेश के राजा का और सेना का उपद्रव नहीं होता ।
(३०) परदेश के राजा का और सेना का उपद्रव नहीं होता ।
(३१) अतिवृष्टि अर्थात्, बहुत अधिक वर्षा नहीं होती
(३२) अनावृष्टि [ कम वर्षा या वर्षा का अभाव ] नहीं होता।
[३३] दुर्भिक्ष-दुष्काल नहीं पड़ता [३४] जिस देश में पहले से इति-भीति महामारी, स्वरचक का भय आदि उपद्रव हो, वहाँ भगवान् का पदार्पण होते ही तत्काल उपद्रव दूर हो जाते हैं। इन चौतीस अतिशयों में से ४ अतिशय जन्म के होते हैं. १५ केवल ज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात होते हैं और १५ देवों के किये हुए होते हैं।
अरिहन्त की वाणी के ३५ गुण
तीर्थकर भगवान् कृतकृत्य होने पर भी तीर्थंकर नाम कर्म के उदय से निरीह- निष्काम भाव से, जगत के जीवों का कल्याण करने के लिये धर्मोपदेश देते हैं। उनकी वाणी में जो-जो गुण होते हैं वे इस प्रकार हैं:
[१] तीर्थंकर भगवान् संस्कारयुक्त वचनों का प्रयोग करते हैं।
[२] भगवान् ऐसे उच्चस्वर [ बुलन्द आवाज ] से बोलते हैं कि एक-एक योजन तक चारों तरफ बैठी हुई परिषद श्रोतागण ] भलीभांति श्रवण कर लेती है।
[३] रे ‘तू’ इत्यादि तुच्छता से रहित सादे और मानपूर्ण वचन बोलते हैं।
[४] मेघगर्जना के समान भगवान् की वाणी सूत्र से और अर्थ से गम्भीर होती है। उच्चारण और तत्त्व दोनों दृष्टियों से उनकी वाणी का रहस्य बहुत गहन होता है ।
[५] जैसे गुफा में और शिखरबन्द प्रासाद में बोलने से प्रतिध्वनि उठती है, उसी प्रकार भगवान् की वाणी की भी प्रतिध्वनि उठती है ।
[६] भगवान् के वचन श्रोताओं को घृत और शहद के समान स्निग्ध और मधुर लगते हैं।
[७] भगवान् के वचन ६ राग धौर ३० रागिनी रूप परिणमित होने से श्रोताओं को उसी प्रकार मुग्ध और तल्लीन बना देते हैं जैसे पुंगी का शब्द सुन कर नाग और वीणा का शब्द सुन कर मृग मुग्ध और तल्लीन हो जाता है।
[८] भगवान् के वचन सूत्र रूप होते हैं। उनमें शब्द थोड़े और अर्थ बहुत होता है।
[९ ] भगवान् के वचनों में परस्पर विरोध नहीं होता। जैसे अहिंसा परमो धर्म:’ ‘ कह कर फिर यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः अर्थात् पशु यज्ञ के लिये ही बने हैं, ऐसे पूर्वापरविरोधी वचन भगवान् नहीं बोलते ।
[१०] भगवान् एक प्रस्तुत प्रकरण को पूर्ण करके फिर दूसरे प्रकरण को प्रारंभ करते हैं। एक बात पूरी हुई कि नहीं और बीच में ही दूसरी बात कह दी इस तरह गड़बड़ नहीं करते। उनका भाषण सिलसिलेवार होता है ।
[११] भगवान् ऐसी स्पष्टता [ खुलासा करके उपदेश देते हैं कि श्रोताओं को किंचित् भी संशय उत्पन्न नहीं होता ।
[१२] बड़े से बड़े पण्डित भी भगवान् के वचन में किंचित् मात्र भी दोष नहीं निकाल सकते।
[१३] भगवान् के वचन सुनते ही श्रोताओं का मन एकाग्र हो जाता है,उनके वचन सब को मनोज्ञ लगते हैं ।
[१४] बड़ी विचक्षणता के साथ देश काल के अनुसार बोलते हैं ।
[१५] सार्थक और सम्बद्ध वचनों से अर्थ का विस्तार तो करते हैं किन्तु व्यर्थ और ऊटपटांग बातें कह कर समय पूरा नहीं करते ।
[१६] जीव आदि नौ पदार्थों के स्वरूप को प्रकाशित करने वाले सार-सार वचन बोलते हैं, निस्सार वचन नहीं बोलते ।
[१७] सांसारिक क्रिया की निस्सार बातें [ कहना आवश्यक हो तो ] संक्षेप में पूरी कर देते हैं अर्थात् ऐसे पदों को संक्षेप में समाप्त करके आगे के पद कहते हैं ।
[१८] धर्म कथा ऐसे खुलासे के साथ कहते हैं कि छोटासा बच्चा भी समझ जाय ।
[१९] अपनी श्लाघा [प्रशंसा और दूसरे की निन्दा नहीं करते। पाप निन्दा करें परन्तु पापी की निन्दा नहीं करते।
[२०] भगवान् की वाणी दूध और मिश्री से भी अधिक मधुर होती है. इस कारण श्रोता धर्मोपदेश छोड़ कर जाना नहीं चाहते ।
[२१] किसी की गुप्त बात प्रकट करने वाले मर्म वेधी वचन नहीं बोलते।
[२२] किसी की योग्यता से अधिक गुण वर्णन करके खुशामद नहीं करते किन्तु वास्तविक योग्यता के अनुसार गुणों का कथन करते हैं
[२३] भगवान् ऐसा सार्थक धर्मोपदेश करते हैं, जिससे उपकार हो और आत्मार्थ की सिद्धि हो
[२४] अर्थ को छिन्न-भिन्न करके तुच्छ नहीं बनाते ।
[२५] व्याकरण के नियमानुसार शुद्ध शब्दों का प्रयोग करते हैं
[२६] अधिक जोर से भी नहीं, अधिक धीरे भी नहीं और शीघ्रतापूर्वक भी नहीं, किन्तु, मध्यम रीति से वचन बोलते हैं
[२७] प्रभु की वाणी सुनकर श्रोता ऐसे प्रभावित होते हैं और बोल उठते हैं कि अहा ! धन्य है प्रभु की उपदेश देने की शक्ति ! धन्य है प्रभु को भाषणशैली !
[२८] भगवान् हर्षयुक्त और प्रभावपूर्ण शैली से उपदेश करते हैं,जिससे सुनने वालों के सामने हूबहू चित्र उपस्थित हो जाता है और श्रोता एक अनूठे रस में निमग्न हो जाते हैं।
[२९] भगवान् धर्म-कथा करते-करते बीच में विश्राम नहीं लेते, बिना विलम्ब किये धाराप्रवाह भाषण करते हैं
[३०] सुनने वाला अपने मन में जो प्रश्न सोच कर आता है, उसका बिना पूछे ही समाधान हो जाता है।
[३१] भगवान् परस्पर सापेक्ष वचन ही कहते हैं और जो कहते हैं वह श्रोताओं के दिल में जम जाता है।
[३२] अर्थ, पद, वर्ण वाक्य सब स्फुट कहते हैं- आपस में भेलसेल करके नहीं कहते।
[२३] भगवान ऐसे सात्विक वचन कहते हैं जो ओजस्वी और प्रभावशाली हौं।
[३४] प्रस्तुत अर्थ की सिद्धि होने पर ही दूसरे अर्थ को आरम्भ करते हैं-
अर्थात एक कथन को दृढ़ करके ही दूसरा कथन करते हैं
[३५] धर्मोपदेश देते-देते कितना ही समय क्यों न बीत जाय, भगवान् कभी थकते नहीं हैं किन्तु ज्यों के त्यों निरायास रहते हैं।
आचार्य श्री मानतुंग ने अपने भक्तामर स्तोत्र के पीछे वाले 10 श्लोक में भक्ति का आंशिक प्रतिफल बतलाया है,वो इसलिए कि जब, तीर्थंकरों की भक्ति से सब कुछ मिल सकता है ।
जहां देवी-देवता, इंद्र भी चरणों में शीश झुकाते हैं । उस अरिहंत तीर्थंकरों की भक्ति ही सर्वोत्तम है।
जिससे कर्म निर्जरा भी होगी और भौतिक लाभ भी मिलेगा।
शास्त्रों में उन्हीं अरिहंत सिद्धों की भक्ति णमोत्थुणं के पाठ से की गई है ।
जिस पाठ से देवी देवता, इंद्र भी प्रभु की स्तवना करते हैं ।
अतः इसका नाम ही शक्रस्तव है।
भक्तामर स्तोत्र में भी उन्ही तीर्थंकर,अरिहंत भगवंतों का महत्व बताकर स्तुति की गई है।
कोई भी स्तुति हो या जप,तप हमारा लक्ष्य कर्म निर्जरा का हो तो आवान्तर समस्याओं का समाधान तो स्वत: होता चला जाएगा ।