28 दिसंबर
दृष्टि सम्यक बनावें
भक्तामर
जैनाचार्य श्री ज्ञानचंद्र जी म. सा.
चांदनी के बीच चेतन की चांदनी को जगाने की आवश्यकता है। आयुष्य की यह चांदनी जिन्दगी को समझने का मौका दे रही है। हम उसके स्वरूप को पहचाने व अंधेरे में भी चाँदनी की तरह रहना सीख जाए। जिस प्रकार प्राचीन युग में लोग सांज ढलने से पहले पहले सारे सामानों को व्यवस्थित कर देते थे। उन्हें मालूम होता था कि कौन सी वस्तु कहाँ पड़ी है। अंधेरे में वे इतने अभ्यस्त होते कि जिस सामान को उठाना है वहीं पर हाथ पड़ जाता था। आज भी General store के कुछ व्यापारी ऐसे मिलेंगे कि light चली गई हो तो भी वे सामान निकालकर दे देते है। वे ज्यादा ही अभ्यस्त होते हैं। यह चांदनी में लगातार देखने की अभ्यस्त प्रक्रिया है। वैसे ही प्रभु की भक्ति रूपी चादंनी को दिल में बिठा लें तो दुनिया का अंधेरा हमारे लिए बाधक नहीं बनेगा। इसलिए भक्ति के शब्द मुखरित किए जाते हैं।
आचार्य मानतुंग कहते हैं-
“भिन्नेभ- कुम्भ-गल-दुज्ज्वल- शोणिताक्त,
मुक्ता-फल-प्रकर-भूषित-भूमि – भागः ।
बद्ध क्रमः क्रम गतं हरिणा-धिपो ऽपि,
नाक्रामति क्रम-युगाचल-संश्रितं ते ।।
हे भगवन्। जिस आत्मा के अन्दर आपका नाम बसता है, जो व्यक्ति आपका स्मरण करता है। वह बड़े से बड़े दुख का, संकट का सामना कर सकता है। इसके उदाहरण भी दिए गए है- “भिन्नेभ — —
अर्थात् हाथी का गण्डस्थल जिस पर मोती लगे हुए हैं। ऐसे बलवान हाथी को शेर झपट कर पंजा मारकर विदारण कर देता है। अतः कहा है भिन्नेभ-भिन्न कर दिया है। जिसके गण्डस्थल को और मोती खुन से भर गए हैं, जिससे यह भूमि भर गई है।
ऐसा शेर जो खूंखार है जो हाथी तक का विदारण कर सकता है।
बद्धक्रम—-वह शेर अपनी शक्ति को संयोजित कर भक्त पर छलांग लगाए। ऐसी विकट स्थिति में जो आपको याद करते है, आपके चरण युगल जिसने पकड़ लिए हैं। उसका कोई भी नहीं बिगाड़ सकता। वह शेर वहीं स्थिर खड़ा हो जाता है। उसकी क्रुर ताकत कुछ नही कर सकती। हिंसा पर अहिंसा की विजय होती है। एक तरंग हिंसा की दूसरी तरंग अहिंसा की, अहिंसा की तरंग हिंसा की तरंग को काट देती है। तीर्थंकर के आमने-सामने शेर-बकरी बैठा करते थे। यह तो आमने-सामने बैठने की बात है पर यहाँ तो आपके स्मरण मात्र से ही सारे संकट टल जाते हैं। वैचारिक शक्ति में इतना Power होता है। अन्तगढ़ सूत्र में अर्जुनमाली का वर्णन आता है जो प्रतिदिन 6 पुरुष और 1 स्त्री को मारता था। वह, सुदर्शन सेठ जो सच्चा भक्त था प्रभु का, उसे मारने गया तो उसके खुद भीतर घुसा हुआ यक्ष निकल गया। उस सुदर्शन ने वन्दन किया था भगवान को और निर्भय होकर भगवान के दर्शन के लिए घर से निकल गया। जहाँ सारे राजगृह नगर को पता था कि नगर के बाहर अर्जुनमाली रहता है। वह रोज 6 पुरुष और 1 स्त्री की हत्या करता है। राजा श्रेणिक भी बाहर नहीं जाते। नगर के सारे फाटक बन्द रहते हैं। आपके सामने ऐसी स्थिति हो तो आप जाओगे क्या? ऐसी बात तो जाने दो कोई छोटा सा काम होगा तो भी का आप प्रवचन छोड़ दोगे। फिर कहते हो शेर खा गया। अरे एक चुहा भी कूद जावे तो हम घबरा जाते है। क्यों? क्योंकि आज व्यक्ति की भगवान के प्रति श्रद्धा, भावना मजबूत नहीं हैं। उनकी मानसिक “तरंगें इतनी मजबूत नहीं है। सुदर्शन सेठ की मानसिक तरंगें मजबूत थी इसलिए यक्ष की शक्ति कोई काम नहीं कर सकी । उसके घट में परमात्मा का निवास पूरा था। हम भी प्रभु की भक्ति करके दुनियां की बड़ी से बड़ी ताकत का सामना आसानी से कर सकते हैं। दुनियां की कोई भी ताकत आपको मार नहीं सकती। शेर जैसा क्रुर प्राणी भी आपने पास आता है तो वह भी मार नहीं सकता।
एक बार एक गुरु शिष्य पैदल यात्रा कर रहे थे, जब गहन जगंल आया तो झाड़ियों में दुर एक केशरी सिंह नगर आया। शिष्य ने गुरूजी से कहा- गुरूजी! शेर हमारे पास आ रहा है। वह तो हमें खा जाएगा, अब क्या करें। गुरुजी उपाय ढूंढने लगे। शिष्य को पता था कि शेर वृक्ष पर चढ़ नहीं सकता। उलटा चढता है तो भी चढ़ा नहीं जाता। वह शिष्य शीघ्रता से वृक्ष पर चढ़ गया। गुरुजी वृक्ष के नीचे ध्यान करके खड़े हो गए। केशरी सिंह उन्हें ढूढंते हुए वहाँ आया। शिष्य ने सोचा- आज तो गुरुजी नहीं बचेंगे, सिंह छलांच लगाता हुआ आया पर आते ही पालतु बन गया। उसने गुरुजी के पैर को चाटा और वहाँ से चला गया। शेर वहाँ से ओझल हो गया।
शिष्य ने यह दृश्य देखा, उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। वह वृक्ष से नीचे उतरा और गुरुजी के साथ चलने लगा। उसने गुरुजी से कहा- आप बड़े चमत्कारी हैं। शेर भी आपका कुछ नहीं बिगाड़ा सका। थोड़ी दूर गुरू- शिष्य गये होंगे कि गुरु को एक मेच्छर खा गया। उसने चेले से कहा कि मुझे मच्छर खा गया। चेले ने कहा- आपको शेर भी नहीं खा सकता है तो फिर इस मच्छर की क्या विसात जो आपको खा ले। यह तो बहुत छोटा है। गुरु जी ने कहा-सुन, जब मैं वहाँ था तब परमात्मा के साथ था। मन में जो उसकी लौ जगी हुई थी, इसलिए शेर ने मुझे नहीं खाया। पर अब मैं तेरे साथ हूं। इसलिए मुझे मच्छर ने भी खा लिया जब व्यक्ति सारी महत्त्वाकांक्षों और बाहरी
चीजों से ऊपर उठकर परमात्मा का ध्यान लगाता है तो उनकी शक्ति अभूतपूर्व बनती है। तब दुनियां की कोई भी शक्ति उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। जब वह संसारी स्वार्थों में उलझता है तो शक्ति काम नहीं करती। इसलिए कहते हैं कि तुम किसी न किसी रूप में परमात्मा का स्मरण करो। ऐसा करने से आपके विचारों में जरूर परिवर्तन आएगा और तुम्हारे शरीर के एक्सन भी बदलने लग जाएँगे, तुम्हे ऊपर से नहीं भीतर से बदलना है। कहा है- जहा अंतो तहा बाहिँ” अन्दर में गुस्सा हो तो बाहर आयेगा ही आयेगा, अन्दर में यदि कोई वेदना है, पीड़ा है फिर भी वह मुस्करा रहा है तो भी आप समझ जाते है कि चाहे वह मुस्करा रहा है पर अन्दर में गड़बड़ जरूर है। हंसी फीकी फीकी है। अन्दर के विचार बाहर आए बिना नहीं रह सकते। वह तो उभरेंगे ही उभरेंगे, बीमारी भी पहले अन्दर में पैदा होती है फिर वह धीरे धीरे बाहर आने लगती है। पहले भीतर में कीटाणु आते है फिर बाहर वे फोड़े-फुंसी के रूप में उभर जाते हैं। वैसे ही दुषित विचार हमारे heart,lungs को खराब कर रहे हैं। और उनको खराब करते हुए बाहर आ जाते हैं। इसलिए भगवान महावीर ने कहा कि पहले तुम स्वयं को बदलो, दुनियां को बदलने में मत लगो। आज व्यक्ति दूसरे को देखता है। उसने गाली दी तो मैं भी दूँगा। उसने मारा तो मैं भी मारूँगा, उसने मेरे साथ दुर्व्यवहार किया तो मैं भी करूँगा। उसने मेरे साथ किया तो क्यों किया? आज के लोग दुनियां को बदलने में लगे हैं। एक मिनिस्टर की पत्नि थी। वह मोती, काली, बदसूरत औरत थी पर थी मिनिस्टर की पत्नि। इसलिए उसका रूवाब था। वह मिनिस्टर के साथ हमेशा बाहर आती-जाती थी। उसको एक ही एलर्जी थी कि जहाँ भी वह कांच देखती। उस कांच को मुक्का मारकर फोड़ देती। कोई भी उससे झगड़ा मोल नहीं लेना चाहता। उसकी काँच फोड़ने की आदत पड़ गई थी। एक बार उसकी, एक समझदार सहेली ने पुछ ही लिया कि तुम काँच क्यों फोड़ती हो? उसने कहा मैं जब जब कांच देखती हूं तब 2 वह बताता है कि मेरी बदसूरती ऐसी है। इसलिए मुझे काँच से एलर्जी हो गई है। सहेली ने कहा- अरे! कांच फोड़ने से क्या तुम्हारी बदसूरती ठीक हो जाएगी, दुनियां की दृष्टि में तुम्हारा चेहरा जैसा है वैसा ही रहेगा, काँच फोड़ने से कुछ नहीं होता, आज आदमी भी कांच फोड़ने में लगा है। अपनी कमजोरी नहीं निकालता, दूसरों के दुर्गुण निकालने में लगा है। कभी पत्नी से लड़ता है, कभी भाई से लड़ता है। इस प्रकार लड़ने से क्या फायदा होगा? इससे क्या आप सुधर जाओगे। ऐसा करने से आपकी आदत तो नहीं बदली। इसी तरह वह व्यक्ति जो काँच फोड़ता है। वह कभी सुखी नहीं रह सकता चाहे वह बहुत धन पाले, बंगला बना ले, कितनी facility पा ले। जब तक खुद नहीं समझेगा तब तक शान्ति नहीं मिलेगी।
एक कांच के महल में कुत्ता बैठा है। उसे चारों तरफ कुत्ते ही कुत्ते नजर आ रहे हैं। वह चारों तरफ कुत्ते देखकर भौंकना शुरू कर देता है। वहां भोंकते भोंकते थक गया और बेहोश हो गया। उसी महल में समझदार आदमी को डाल दिया जाए तो वह बहुत खुश हो जाएगा। वह कहेगा सब तरफ सिर्फ मैं ही मैं हूं और कोई दिखाई ही नहीं देता, इसलिए वह कांच पर नहीं’ भौंकता, अपितु उसके चेहरे, शरीर पर, कपड़े, पर जहाँ कहीं गड़बड़ होती है उसे जल्दी से ठीक कर लेता है।
आज व्यक्ति जहाँ जाता है वहीं पर झगड़ा मोल ले लेता है।” क्योंकि वह सबको पराया समझता है। भगवान महावीर कांच के कमरे में बन्द हुए पर फिर भी उनकी व्त्ति नहीं बदली, उनाको शुलपाणि ने अनेक परिषह दिए, संगम देवता ने भी कष्ट दिया पर उन्हें कोई परेशानी नहीं आई। उन्होंने सभी का उद्धार कर दिया। क्योंकि वे सबको अपना समझते थे, अत: उनको कोई परेशानी नहीं आयी। पर आज इतनी लड़ाई क्यों? आज व्यक्ति एकमत नहीं होना चाहता, इस कारण से संघर्ष होता रहता है। इस संघर्ष को छोड़ने के लिए कुत्ते की आदत को छोड़ना पड़ेगा, साथ ही साथ इन्सान की आदत को भी समझना पड़ेगा।
पर आज व्यक्ति की वृत्ति खराब हो गई हैं।
जहाँ भी संघर्ष चल रहा है वहां यही समझ रहा है कि मैं अलग हूँ वह अलग है। अतः वह भौं भौं करता है। भगवान महावीर भी तो इस दुनियां में जीये, वे सभी को मैं ही समझते थे। संगम भी मैं ही हूँ। शुलपाणि भी मैं ही हूँ। वे सबको अपना ही समझते थे। पर आज कुत्तेवत् दूसरों को दूसरा समझ रहे है। और भौं भौं कर लेते है। किन्तु सही इंसान जो है वह दूसरों को देख अपने को ठीक कर लेता है। अपनी शर्ट, पेंट, बाल आदि को ठीक कर लेगा।
एक बार रामकृष्ण गोखले कुछ लिख रहे थे। नौकर से स्याही लाने को कहा। नौकर स्याही लेके आया। उसने गोखले जी को अच्छी तरह से स्याही की दवात पकड़ाई नहीं। इसलिए वह गिर गई, नौकर डर गया, उसने सोचा गोखले जी मुझे डाटेंगे। वे कुछ कहे बिना नहीं रहेंगे। पर गोखले जी कहने लगे- तुम्हारी कोई गलती नहीं, गलती मेरी हैं, मैंने दवात ठीक से नहीं पकड़ी। वह मेरे कारण से टुट गई । कोई मालिक अपनी गलती नहीं ही देखता, खुद की गल्ति को भी नौकर पर थोपता है। लेकिन रामकृष्ण गोखले ने गल्ती खुद की स्वीकार की। नौकर उनसे प्रभावित होकर विनम्रता से कहने लगा नहीं-नहीं बाबूजी। आपकी गल्ती नहीं मेरी गल्ती है। अगर वे नौकर के धब्बे को मिटाने में लगे रहते तो क्या होता, नौकर उनके सामने बोलता, गालियों बकता, उसकी नौकरी छोड़ देता। इससे उनको टेन्सन हो जाता और आप कहते- बेवकूफ एक तो दवात फोड़ी, फर्श खराब कर दिया और अब नौकरी छोड़ने को कह रहा है। फिर नौकर कहता- गलती खुद की है और मुझ पर डाल रहे हैं। ऐसी नौकरी जाए भाड़ में, मुझे नहीं चाहिए, पर गोखले जी से नौकर कहता है- मैंने गलती कर दी, अब आगे से ध्यान रखूँगा।
पर आज क्या होता है? रास्ते में काँच की गिलास पड़ी है। तो आप चिलाएँगे पता नहीं कैसे-कैसे लोग है। बीच रास्ते में गिलास रख देते है और वह फूट गई। यदि स्वयं के द्वारा फुट जाए तो ऐसा कहेंगे। यदि बहू के द्वारा वही गिलास फुट जाए तो कहेंगे अंधी हो क्या! इतनी बड़ी गिलास ही तुझे दिखाई नहीं देती। देखिए कैसी दृष्टि है?
इसलिए भगवान कहते है पहले दृष्टि बदलो, दृष्टि को सम्यक बनाओ। सामायिक- प्रतिक्रमण आदि बाद की बातें हैं। पहले हमारी श्रद्धा, सोच और दृष्टि सम्यक् होनी चाहिए। यदि नहीं तो कैसे साधु और कैसे श्रावक? यदि आपकी दृष्टि सम्यक् होगी तो सामने वाले की सोच भी चेन्ज हो जाएगी। क्योंकि भगवान महावीर कहते हैं कि जब सम्यक् दृष्टि आती है तो गल्ती खुद की स्वीकार कर ली जाती है।यदि आपसे गल्ती हो भी गई तो आप गुस्सा करके दूसरों को सुधार नहीं सकते।
एक सेठ के एक ही लड़का था। सेठ की दूर-2 दुकानें चलती थी। दो नंबर का धंधा भी चलता था। आज तो छोटा से छोटा मजदूर भी दो नंबर का काम करता है। जैसे आप कहिए यह मिट्टी इधर की उधर डालनी है। यह काम करने के प्रति दिन के 50 रुपये मिलेंगें । तो वह काम धीरे-धीरे करेगा। दो-तीन दिन लगाएगा। यदि आप कहोगे 5 घंटे में काम करो तो 80 रुपये मिलेंगे। तब देखिए शरीर में ताकत आ जाएगी। वह Machine की भांति काम को करने में लग जाएगा। अध्यापक का कार्य है – बच्चों को पढ़ाना, उन्हें समझाना, पर वह स्कूल में बच्चों को नहीं समझाता। वह कहेगा- घर पर आ जाना। तुम्हारी classing ले लुंगा, अच्छी तरह समझा दूँगा। इसे कहते है दो नंबर का काम। 2 नंबर का काम तो छोड़िए आजकल तो 3 नंबर 4 नंबर का काम भी चलता है। वह 3 नंबर 4 नंबर का काम क्या है? एक बार एक व्यक्ति एक इण्डस्ट्री मे इन्टरव्यू देने गया। सेठ जी ने पूछा- बता तुझमे क्या खासियत है? किस लिए मैं तुझे नौकरी पर रखूं। वह व्यक्ति कहने लगा। ‘मैं एक No. का व दो No. का काम आसानी से कर सकता हूँ। जिससे आपके saletax, Income Tax कम से कम लगे। इसके अलावा में 3 नंबर, 4 नंबर का काम भी कर सकता हूँ। सेठ जी सोचने लगे- 1, 2 नंबर का काम जानता हूँ पर यह 3,4, नंबर क्या होता है,सेठ जी ने आगन्तुक से पूछा-उसने कहा तीन नंबर काम का मतलब है, कि मैं यह भी जानता हूँ आपके पार्टनरशिप के 25/- का 35% का कैसे होता है। यह रूपया भी मैं आपको दिला सकता है। 4 No. का मतलब मैं दुसरे की आँखों में धूल झोंकना भी जानता है। 35% में से 5% खुद के लिए भी निकाल सकता हूँ। वह उसको खाएगा वह उसको खाएगा। आज व्यक्ति एक दूसरे को खाने खिलाने में लगे हैं। यह अनैतिकता व्यक्ति के जहन में घुस गई है।
एक सेठ और सेठ का बेटा अपने खाताबही का 2 नंबर का काम खुद ही किया करते थे। वे अलग कमरें में बैठते थे, वहाँ नौकर नहीं जाते। चाय-वाय सेठानी या बहु दोनों में से एक ले जाते थे, सर्दी का टाइम था। वे दोनों बाप- बेटे खाताबही का कम कर थे। उन्हें चाय देने के लिए कोई आ रहा था। उन्हें पदचाप की आवाज सुनाई दी। इतने में बाहर से कुछ फुटने की आवाज आई। पिता से कहा- बेटे। लगता हैं बहु से कप-प्लेट फुट गई है। बेटा कहता है- नहीं पिताजी यह कप- प्लेट माँ से फूट गई है, दोनों एक दूसरे पर आक्षेप किए जा रहे थे। सेठ जी को बहुत तेज गुस्सा आने लगा। गुस्से में उनकी भाषा बदल गई। उन्होंने बेटे से कहा-तेरी पत्नि के हाथ से फूट गयी। बेटे को भी जोश आ गया वह बोला- मेरी पत्नि नहीं तेरी पत्नि के हाथ से फूटी है। बाप को लिहाज नहीं रहा बोलने का तो बेटे को कैसे लिहाज रहेगा। दोनों एक दूसरे पर claim करने लगे। दोनों जबरदस्त एक दूसरे से भिड़ गए। अन्त में निर्णय हुआ कि जानकारी तो कर ले आखिर किसके द्वारा फूटी । तब पता चला कि सेठानी के हाथ से फूटी, सेठजी सोचने लगे- बेटे को पता कैसे चला कि सेठानी के साथ से फूटी। उन्होंने बेटे को बुलाकर पूछा कि तुझे पता कैसे चला। उसने कहा- जब कप-प्लेट फुटे तो सिर्फ एक ही विस्फोट हुआ तब मैं समझ गया माँ ने ही फोड़ी है। यदि मेरी पत्नी के द्वारा फुटते, तो दो विस्फोट होते। तब बाहर से जरूर यह आवाज आती “हियो फुटोडी, थने इतो ही ठा नहीं पड़े। उपर्युक्त बात से मानना होगा कि आज व्यक्ति दुसरों के कांच फोड़ने में लगा है। काँच फोडने से बदसूरती नहीं मिटती। पर आज यही हो रहा है। सामने वाले ने मेरा यह नुकसान कर दिया, वह कर दिया। बाप-बेटे, सास- बहू इसी बात को लेकर एक- दूसरे से भिड़ते हैं।
एक बाप- बेटे एक ही दुकान में काम करते थे। बेटे ने एक दिन बाप के सामने दुकान की चाबियाँ फेंक दी और कहा- अब हम एक दुकान पर दोनों नहीं रह सकते हैं। सब एक राह के ही राही है। क्योंकि बाप बार- 2 टोकने की कोशिश करता है। बोले बिना नहीं रहा जाता। आज बड़े, बुर्जग हो जाते है पर हर बात में झगड़ा करते हैं। बेटे बहू यदि घूमने चले गए तो टोकेंगे। कहेंगे- अरे। , हम तो कभी घूमने गए ही नहीं पर इन्हें देखों बाहर “भटकते फिरते है। ऐसी स्थिति में बेटे- बहू सोचते हैं। यह कैसी परवव्रंता। एक घर में चार बेटे हैं और चौके आपको पाँच मिलेंगे। ऐसा, दृष्टि खराब होने से होता है। आज दृष्टि सही काम नहीं कर रही है। कृष्ण वासुदेव की दृष्टि सही थी। वे भगवान अरिष्टनेमी के दर्शन करने गए। गजसुकमाल की दृष्टि सोमिल ब्राह्मण की पुत्री पर पड़ी। वासुदेव ने मन में जान लिया कि मेरे भाई को यह लड़की पसन्द आ गई है। उन्होने सोमिल ब्राह्मण से उसकी पुत्री को मांग लिया। पर भगवान के पास आते ही गजसुकमाल मुनि की दृष्टि बदल गई। और वे साधु बन गए। इस पर कृष्ण वासुदेव को कुछ नहीं लगा क्योंकि उनकी सोच सही थी। उन्हें पता था कि यह चरमशरीरी, साधनाशील आत्मा है। यह होती है सम्यक् दृष्टि। पर अगर आज आपके घर ऐसा हो जाए तो आप उसकी खिल्ली उड़ाओगे। अरे! अभी तो रोड़ पर लड़की पसन्द की और अभी साधु बन गया। यह है दृष्टि के में अन्तर। आज घर की शान्ति बदल रही है। हमने हर बात की प्रतिक्रिया करनी सीख ली। हमे परिवार के साथ, समाज के साथ कैसे चलना? जीवन को कैसे सही बनाना नहीं आता, हम हर बात पर कुत्ते की तरह भौंकने लगते है। इसलिए अपने जीवन को सही बनाने के लिए इन्सानी वृत्ति को जगाइए। इसके लिए अपने आपको बदलिए तो वह दिन दूर नहीं जब आपको स्वर्ग मिल जाएगा।
आप बाहरी फेसिलिटी कितनी भी इकट्ठी – कर लीजिए, गाडियाँ, फर्नीचर ले आए, आपको सुख नहीं मिलेगा क्योंकि अन्दर की सोच सही नहीं, दृष्टि सही “नहीं तो सुख व शान्ति प्राप्त हो नहीं सकती। इसलिए घर में सही ढ़ंग से जीना भी कठिन है। घर में सही जीने वाले ही समाज में भी सही जी सकते हैं। नहीं तो लोग कहते है- महाराज। यह घर पर तो लडते रहते है, यहाँ बड़े
सौम्य दिखते है। धर्म करते है, मीठा बोलते हैं। ऐसा व्यक्ति श्रावक बन पाया पर नाम का । पर सम्यक् दृष्टि नहीं। इसलिए दृष्टि को chang करें। क्योंकि पारिवारिक संबंध रहेगा तो ही सामाजिक संबंध रहेगा। इसलिए दृष्टि को सम्यक् बनावें। यह साधना इस भव में भी सुख व परभव में भी सुख देने वाली है। प्रभु की भक्ति, जब रोम-रोम से की जाती है, तब वह स्वत: प्रभावी हो जाती है। वो बड़े से बड़े संकट से भक्तों को बचा लेती है। अतः आचार्य मानतुंग ने विभिन्न रूपों में अलग-अलग उदाहरण देकर समझाया है। जब दिल से भक्ति की जाती है तब व्यक्ति का दिल भी पवित्र हो जाता है और घर का वातावरण भी आनंदमय बन जाता है।
धर्म प्रभावना
28 दिसंबर कोहरे के कारण सवेरे प्रवचन नहीं हो पाया मध्यान्ह में धर्म चर्चा हुई बाहर के दर्शनार्थियों का निरंतर आवागमन जारी है।
श्री अरिहंतमार्गी जैन महासंघ सदा जयवंत हो।