26 दिसंबर कपुरथला
कौन रोक सकता है
जैनाचार्य श्री ज्ञानचन्द्र जी म.सा.
सम्पूर्ण- मण्डल-शशांक – कला-कलाप-
शुभ्रा गुणास् – त्रि-भुवनं तव लंघयन्ति।
ये संश्रितास् – त्रि-जगदीश्वरनाथ-मेकं,
कस्तान् निवारयति संचरतो यथेष्टम्
ये जो जिंदगी की किताब है
वो किताब भी क्या किताब है
इंसान जिल्द संवारने में व्यस्त हैं
और पन्ने बिखेरने को बेताब है ।
जब तक तन में आत्मा की विद्युत धारा चल रही है तभी तक तन का महत्व है, धन का महत्व है परिजनों का महत्व है यह सारी दुनियां तभी तक है । ज्यों ही आत्मा, तन से निकल जाती है। सब कुछ शुन्य हो जाता है ।
अतः तन धन की सुरक्षा करने से पहले आत्मा की सुरक्षा करो ।
पांचों इंद्रियों को सक्रिय बनाने वाली आत्मा ही तो है ।
हम कान, नाक, आंख को बचाने में लगे हैं ।
जबकि उसके भीतर की प्राणधारा को तेजस्वी बनाने की ओर हमारा ध्यान नहीं है ।
उसे मजबूत करने के दो ही तरीके मुख्य है । परमात्मा की भक्ति या फिर जीवदया, सेवा ।
जब हम जीव रक्षा करते हैं, तब उस जीव के दिल की गहराइयों से जो दुआएं निकलती हैं,वह आपके प्राणों को मजबूत बनाती हैं ।
अगर प्राण मजबूत है तो तन कमजोर भी हो तो भी वो अतीन्द्रिय शक्ति से एन्द्रियक शक्ति से भी अधिक काम कर जाता है ।
कहते हैं धृतराष्ट्र जन्मांध थे । फिर भी उन्होंने महाभारत का युद्ध देखा था ।
इसलिए अतीन्द्रिय शक्ति के सामने बाहरी इंद्रियों का कोई सामर्थ्य नहीं है ।
छोटा सा छोटा प्राणी भी क्यों न हो,उसकी भी रक्षा करने में हमें प्रयत्नशील रहना चाहिये ।
जिस प्रकार एक फटाके के अंदर से निकलने वाली चिंगारी संयोग पाकर दुनियां को जला सकती है तो एक सामान्य चींटी की रक्षा करने पर उसकी पॉजिटिव तरंगें भी आपके जीवन को बचा सकती है ।
सारे धर्म के प्रवर्तक ही नहीं, बल्कि सारे चिंतनशील साइंटिस्ट भी जीव के अंदर से निकलने वाली प्राणधारा की पोद्गलिक शक्ति को स्वीकार करते हैं ।
हर भव्य आत्मा को जीव हनन नहीं, जीव रक्षण करना चाहिए।
अपने आपको बचाने का मुख्य कारण है कि परमात्मा की भक्ति।
परमात्मा की सच्ची भक्ति वही कर सकता है जो परमात्मा के द्वारा संरक्षित जीवों का हनन न करें ।
क्योंकि जो परमात्मा, छ: काय के रक्षक होते हैं । सारे जीव उनकी नेश्राय में निर्भय रहते हैं ।
उन जीवों का हनन, स्वयं के भी घात का कारण बन सकता है।
उत्तराध्ययन सूत्र के 18 वें अध्ययन में वर्णन आता है कि कंपिल नगर का संयति राजा मृगों का शिकार करता हुआ आगे बढ़ रहा था । तो उसने देखा कि वे सभी मृग, गर्दभाली-महात्मा के पास आकर निर्भयता पूर्वक बैठें हैं ।
उसे समझने के साथ ही-संयति राजा घबरा गया ।
उसे लगा कि ये सारे मृग,इन महाराज श्री के हैं । जिन पर मैंने तीर चलाया ।
क्योंकि क्रोधित अनगार चाहे तो करोड़ो इंसानों को खतम कर सकते हैं ।
कुद्धे तेएणं अणगारे,डहेज्ज णरकोडिओ ।
संयति राजा ने मुनिराज से अपने अपकृत्य की क्षमा मांगी ।
तब मुनिराज बोले-
अभओ पत्थिवा,तुब्भं अभयदाया भवाहिय ।
अणिच्चे जीवलोगम्मी,किं हिंसा ए पसज्जसि ।
हे राजन् ! तुम मेरी तरफ से अभय हो और तुम भी इन जीवों को अभयदान दो ।
यह जीव लोक अनित्य है । हिंसा में अनुरक्त होना अच्छा नहीं है।
जया सव्वं परिच्चज्ज गंतव्व मवसस्सते ।
सभी जड़ चेतन परिजनों को छोड़कर एक दिन यहां से जाना सुनिश्चित है ।
फिर इनमें आसक्ति क्यों ?
संयति राजा तो समझ गया और सब कुछ छोड़कर सन्यासी बन गया ।
इसलिए कहा जाता है कि प्रभु का भक्त कभी हिंसक नहीं होता।
बल्कि जो प्रभु के भक्त का अपमान करें या फिर उसे ताड़ना, तर्जना भी दे तो भी वह उसके भी कल्याण की कामना करता है ।
ऐसा भक्त जब भगवान की शरण में आ जाता है उसे तीन जगत में इच्छानुसार विचरते हुए कौन रोक सकता है ? कोई नहीं ।
भक्त केवल तन का नहीं ।
भक्त केवल वचन का नहीं।
भक्त,भगवान के सिद्धांतों पर जीने वाला हो तो ही सच्चा भक्त है ।
कहा है-ये एकनाथं संश्रिता ।।
जो एकमात्र अरिहंत प्रभु के ही आश्रित हैं उसी की सर्वत्र निराबाध गति हो सकती है ।
जैसा कि अरणक श्रावक था ।
यह संदेश आज के तथाकथित भक्तों के लिए है ।
जो कि दस देवताओं के पूजते रहते हैं । उनके घरों में जाकर देखो तो छोटे से कमरे को मंदिर बनाकर उसमें बीसियों देवी देवताओं की फोटुएं लगा रखी है।
जो सभी को हाथ जोड़ते रहते हैं और सोचते हैं कि इनसे काम न होगा तो इससे होगा । इससे नहीं होगा तो ये देवता करेंगे ।
हकीकत में तो उसे किसी भी देवता पर पूरा विश्वास है ही नहीं।
तभी तो इतने सारे देवताओं को बिठा रखा है ।
प्रथम तो जिन देवताओं की फोटु लगा रखी है क्या वो तथाकथित भक्तराज उन देवताओं का जीवन जानता है? । वो देवता कैसे बने यह जानता है क्या? । उन्होंने अपने जीवन में क्या अच्छे काम किये। यह जानता है ?
क्या उन अच्छे कामों का अंश भी तुम्हारे अंदर आया है ?
इस अवधान की आवश्यकता है।
अगर किसी भी देवी देवता से भावनात्मक कनेक्शन नहीं हुआ तो केवल चित्रों से क्या हो जाना है ।
चित्र तो आए दिन अखबारों में कई भगवानों के, देवी,देवताओं के आते रहते हैं ।
दूसरे दिन या तो रोड पर मिलेंगे या रद्दी में बिक जायेंगे ।
या चाट पकोड़ो में सिमट जाएंगे।
प्रथम तो ऐसा अविनय होना भी गल्त है ।
यह भी देवी देवताओं का अपमान है ।
देश के आस्तिक लोगों को सरकार पर दबाव डालकर इसे रुकवाने की आवश्यकता है ।
दूसरी बात आजकल पढ़े लिखे लोग भी इन अंध धारणाओं से जुड़े हैं ।
जब तक संतोषी मां की पिक्चर नहीं आई तब तक संतोषी मां की भक्ति और पूजा करने वाले कितने लोग थे-?
लेकिन संतोषी मां की पिक्चर ने संतोषी मां को स्टार बना दिया ।
हजारों लोग भक्त बन गए ।
यह सब क्या है…?
भवन पति, वाणव्यंतर, ज्योतिषी, वैमानिक असंख्य देवी देवता हैं किस किस की पूजा करोगे ।
इनकी पूजा से खास कुछ नहीं होने वाला ।
क्योंकि एक देवता,दूसरे देवता का विरोधी भी होता है।
अतः भक्ति करनी हो तो एकमात्र तीर्थंकर अरिहंत देव की की जाए।
ये संश्रितास्- उन्हीं का शरण लिया जाए ।
जो यथाशक्य जीव रक्षा, संत सेवा, इंद्रिय संयम रखता हुआ चार शरण स्वीकार करता है।
उसकी वह शरण,स्ट्रांग बनती हुई दुनियां की हर ताकत से टकराकर जितने की क्षमता पैदा कर देती है।
उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता है ।
यही तो सुदर्शन सेठ के उदाहरण से समझाया गया है कि उसके दिल में जबरदस्त भक्ति थी।
वो श्रावक था, दयावान था ।
उसको “संचरतों यथेष्टम्”अपनी इच्छानुसार जाते हुए कौन रोक सकता है ।
अर्जुन माली के अंदर रहा शूलपाणि यक्ष भी नहीं रोक पाया।
उसकी भक्ति का सकारात्मक रुप यह था कि शूलपाणि के भाग जाने के बाद अर्जुन माली गिर जाने पर उसकी सेवा भी
सुदर्शन सेठ ने की और उसे होश में लाकर भगवान की सेवा में ले गया । जबकि वो जानी दुश्मन था, उसका भी कल्याण किया।
इसे कहते हैं भक्ति का प्रैक्टिकल रूप ।
केवल नाम की भक्ति मत करो।
चेड़ा महाराजा के सामने दो-दो इंद्रों की शक्ति भी झुक गई ।
अतः भक्ति करिए अरिहंतों की।
नाम के साथ काम भी हो ।
उनके सिद्धांतों की अनुपालना भी हो तो सब कुछ मिल जाएगा ।
अब समझिए भक्तामर के 14 वें श्लोक का अर्थ-
संपूर्ण मंडल शशांक कला कलाप ।
संपूर्ण मंडल- पूर्ण आकार वाले, शशांक चंद्रमा की कलाओं के समान आपके समुज्जवल युक्त गुण तीन लोक को भी पार कर रहे हैं ।
जब आप तीन लोक के स्वामी है
तो आपके गुण भी तीन लोक का उल्लंघन करे तो क्या आश्चर्य है ।
व्यक्ति भले, तन से एक देश में रहे पर गुण तो दूर-दूर तक फैल जाती है ।
जिस प्रकार फूल एक डाली पर ही टिका रहता है, पर उसकी खुशबू दूर-दूर तक फैल जाती है।
यही तो समझने के लिए उदाहरण है, जबकि प्रभु के गुणों का विस्तार तो न चंद्रमा के उदाहरण से समझा सकते हैं और न ही सुर्य के उदाहरण से ।
ये एक देश में ही अपना प्रभाव छोड़ते हैं जबकि प्रभु के गुण तो पूरे लोक में प्रभाव रखते हैं ।
अब जरा सोचिए,ऐसे अतिशय धारी, पुण्य निधान पुरुषों में उत्तम अरिहंत देव से बढ़कर दुनियां में कौन होगा ?
अतः हमें निर्विकल्प रूप से एकं नाथमेकं एक ही नाथ हैं, उन्हीं की भक्ति करनी चाहिये ।
तभी हमारे में भगवत्ता प्रकट हो सकेगी ।
धर्म प्रभावना
26 दिसंबर जालंधर से नररत्न सुनील जी, विशाल जी, विकास जी आदि सपरिवार उपस्थित हुए ।
आचार्य प्रवर आदि की सभी की सुख साता रही ।
गंगाशहर में बीकानेर में चोपड़ा स्कूल के पास अरिहंत भवन में महासाध्वीरत्ना परमविदुषी मंजूबाला जी म.सा. के संथारे का आज सातवां दिन चल रहा है । परम समता भाव के साथ महान कर्म निर्जरा में लगे हैं।
हम सब खूब-खूब शुभ भावना उनके प्रति समर्पित करते हैं
अभिजीत त्रिपाठी
श्री अरिहंतमार्गी जैन महासंघ सदा जयवंत हों