18- दिसंबर रविवार, जंडियाला गुरु देवलोक के नाथ है- गणधर

18- दिसंबर रविवार, जंडियाला गुरु
देवलोक के नाथ है- गणधर
“भक्त के द्वारा भगवान का स्मरण आवश्यक माना जाता है। क्योंकि जिस प्रकार का मन में चिंतन हम करेंगे उसी प्रकार का परिणमन होना शुरू हो जाता है, जैसे आपके विचार होंगे आपकी आचरण क्रिया भी उस रूप में बदलती चली जाएगी, Science कहती है कि खाना खाते समय यदि गुस्सा किया जाए तो वह खाना भी जहर रूप में परिवर्तित हो जाता है। इसलिए कहा जाता है कि सवेरे- सवेरे दिल से परमात्मा का स्मरण करें जो हमारे- तन, मन और जीवन को परिवर्तित करने वाला बनता है। इस चीज को ध्यान में रखते हुए आचार्यों ने विभिन्न स्तोत्रों की रचना की। उनमें कोई सर्वमान्य स्तोत्र रहा है तो वह है भक्तामर स्तोत्र। कुछ को यह स्तोत्र याद होगा, कुछ इस स्तोत्र को ऐसे ही पढ़ते हैं।
भक्तामर के श्लोकों में आचार्य मानतुंग ने- परमात्मा के प्रति विभिन्न विशेषणों को लगाते हुए उनका स्मरण किया है। वे बताते है कि अमर भक्त भगवान् के चरणों में झुकते है तो उनके मस्तक की मणि ओर अधिक प्रकाशित हो जाती है। वे जीवों के लिए आलंबन रूप है। ऐसे परमात्मा की स्तुति किसके द्वारा की गई- आचार्य श्री मानतुंग द्वारा- भक्तामर स्तोत्र में ।
सकल वाङ्मय तत्व बोधा अर्थात् सकल शास्त्रों को पढ़ लेने से, ज्ञान हो जाने से बुद्धि जिनकी पटु यानि निर्मल हो गई है ।
ऐसे सुरलोक नाथै- देवताओं के इंद्र स्तोत्र जगत त्रितय चित्त हरै – जो तीन जगत् के प्राणियों का चित्त हरण करने वाली आपकी स्तुति की गई। इन शब्दों की मीमांसा भक्तामर स्तोत्रों में आती है। सुरलोक के नाथ कौन इन्द्र । ज्ञान की दृष्टि से- बृहस्पति देवलोक का इन्द्र समझा जाता है। उसके द्वारा स्तुति-की गई है। वह सारी दुनियां के चित्त को हरण करने वाली है। इसका अर्थ इतना ही पर्याप्त नहीं है। यही महत्वपूर्ण नहीं है। क्योंकि सकल वाङ्ममय इसका क्या मतलब ? सारे शास्त्र कितने है – 32 । यह शास्त्र तो आज है। पर द्वादशांगी यानि । 12 वां अंग। इसमें बारहवाँ अंग दृष्टिवाद का माना जाता है। जिसमें सारे विश्व का ज्ञान आ जाता है। उसमें सारा श्रुत आ जाता है। अतः इसके अध्ययनकर्ता को श्रुत केवली कहते हैं। केवलज्ञानी सारे विश्व को जान सकते हैं, देख सकते हैं, बता सकते हैं। केवलज्ञानी के बाद कोई ज्ञानी है तो अवधि – ज्ञानी, मन्पर्याय ज्ञानी नहीं, श्रुतकेवली है। श्रुतकेवली, केवलज्ञानी की तरह जान सकता है, उपयोग लगा सकता है।
सकल वाङ्ममय का ज्ञान देवलोक के इन्द्र बृहस्पति को नहीं हो सकता क्योंकि वे अवधिज्ञानी हो सकते हैं, श्रुतकेवली नहीं। अवधिज्ञान के द्वारा सारा ज्ञान प्राप्त करलें। ऐसी उनमें क्षमता नहीं। फिर जो व्याख्या की जाती है कि सुरलोक के नाथ- इन्द्र द्वारा की जाती है तो वह कौन ? जो सारे शास्त्रों का ज्ञान करके निर्मल बुद्धि वाले हो गए हैं।
देव ऐसा कर नहीं सकते क्योंकि वे मणि-मोती में ही उलझे रहते हैं। उनकी बुद्धि शास्त्रों में निर्मल नहीं होती। फिर किसके लिए कहा। इसका अर्थ लाक्षणिक दृष्टि से निकालना पड़ेगा। 84 लाख जीवयोनि में सर्वश्रेष्ठ कौन-मनुष्य।
फिर मनुष्य से ही स्तुति करवाई जाए । लेकिन गाथा में सुरलोक लिख दिया गया है ।
भगवती सूत्र में पाँच प्रकार के देव बताए गए है- भव्य-द्रव्य देव, नर देव, धर्मदेव, देवाधिदेव और भावदेव। केवल स्वर्ग के देवता ही नहीं बताए। यह पाँच भी बताए। नरदेव अर्थात् मनुष्यों का देवता चकवर्ती, धर्मदेव अर्थात् संत- मुनिराज। वे जिस दुनियां में रहते हैं। वो देवलोक हुआ कि नहीं ? साधु, मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ, साधुओं के नाथ-तीर्थंकर-भगवान महावीर- के गण 9 थे 11 नहीं थे। गणधर 11 गणों के मालिक 9 गणधर, 11 जिन साधुओं को शुद्ध ज्ञान था वे गणधर, जिन साधुओं को शुद्ध ज्ञान था वे गणधर कहलाए। धर्मदेव है साधु। उनके नाथ हैं गणधर ।
तीर्थंकर तो गणधर के मालिक होते हैं।
ऊपर के देवलोक से समझा जाए तो ऊपर के स्वर्गलोक में देवों का नाथ – इन्द्र। उनके भी नाथ बैठे है- साधु । उन साधुओं के उपर बैठे है- गणधर । तो फिर देवता क्यों स्तुति करेगा, और मानतुंग देवलोक से स्तुति क्यों कराएंगे? वह तो गणधरों से ही कराएंगे। यही फिट बैठता है। सारे शास्त्रों का ज्ञान किसी को नहीं- केवल गणधरों को होता है। इसलिए गौतम के आगे विशेषण लगाए गए 4 ज्ञानी, 14 पूर्वी, सर्वाक्षर सन्निपाती अर्थात् सभी- अक्षरों का ज्ञान उन्हें होता है । चाहे वह किसी भी भाषा मे लिखें हो, गणधर ही सर्वाक्षर सन्निपाती हो सकते है। अन्य देवादि- “नहीं ।
ऊपर के देवलोक का देव संसारी होता है जबकि साधु 5 महाव्रतों का दृढ़ता के साथ पालन करता है, तप संयम में, साधना में लीन रहता है तभी तो बुद्धि निर्मल होगी, श्रेष्ठ होगी, दृष्टिवाद का ज्ञान विशिष्ट देहधारी गणधरों में होता है। हमारे अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी हुए। उनके बाद कोई श्रुतकेवली नहीं हुआ। उसके बाद कोई 14 पूर्वधारी नहीं हुए। अत: आचार्य मानतुंग कहते हैं कि हे भगवन्! – आपकी स्तुति गणधरों ने की है। वे कैसे है? ‘ य: संस्तुत: संकल वांग्मय तत्वबोधा। जो सकल शास्त्रों के तत्वबोध से जग- गई जिसकी बुद्धि। ऐसे धर्म देवलोक के मालिक गणधरों द्वारा – स्तुति की गई है। इसलिए यह स्तुति महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि यह तीन लोक ऊर्ध्वलोक, अधोलोक, मध्यलोक के प्राणियों के चित्त को हरण करने वाली है, और ऐसी वाणी परम, पवित्र महात्माओं की हो सकती है। उनमें गणधर जैसे व्यक्ति गलती नहीं कर सकते क्योंकि वे 14 पूर्वी पुरे होते हैं। यह बात अलग है कि अनुपयोग वश कोई गलती हो जाए। उदाहरण के लिए गौतम स्वामी ने अनुपयोग वश आनंद श्रावक पर संदेह कर लिया। दृष्टिवाद का अध्येता भी गलती कर सकता है तो सामान्य व्यक्ति का क्या कहना। अतः उनकी हंसी मजाक नहीं उडानी चाहिए (न तं उवहसे मुणी) अपितु उनकी गलती सुधारने का प्रयत्न करना चाहिए। ‘तीर्थंकरों के बाद गणधर महाज्ञानी होते हैं,
जो द्वादशांगी का, 14 पूर्व का अध्ययन कर चुके वे गलती नहीं सकते, ऐसे लोग ही प्रभु की स्तुति करते है। अपनी इस दुनियां में वह सर्वश्रेष्ठ आत्मा है, सिद्ध नहीं, तीर्थकर के बाद No.1 गणधरों का ही नाम आता है। सर्वश्रेष्ठ आत्मा तीर्थंकर है। उससे सर्वश्रेष्ठ – कोई नहीं और सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति उनके साथ जुड़े है वे है- गणधर। ऐसे सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति के द्वारा की गई स्तुति- सर्वश्रेष्ठ क्यों नहीं होगी। ‘भगवान महावीर की स्तुति सुधर्मा स्वामी द्वारा की गई है, पुच्छिस्सुणं के माध्यम से , अब इसे महावीर की स्तुति कहो या ऋषभदेव की। पर उस समय वे ही उपस्थित थे। अतः उन्हीं के माध्यम से की गई है। पर एक के नाम से, उपलक्षण से सारे तीर्थंकर आ जाते है। तीर्थंकर सभी प्रथम होते है। चाहे प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव रहे हो या अन्तिम तीर्थंकर महावीर रहे हो। पिता का, दादा का नाम लेने से सारा काम अपने आप ही हो जाता है। गार्ड का डब्बा सबसे Last होता है वह हरी झण्डी दिखाता है जिससे सारे डब्बे अपने आप ही हिलने लगते हैं। एक की स्तुति का मतलब अनंत चौबिसियों’ की स्तुति, जो सभी के चित्त का हरण करती है। ऐसी स्तुति को जो करता है उसके – कभी शत्रु नहीं होंगे। यदि आप उसी स्तुति में बैठेंगे तो – “आपके भी कोई शत्रु नहीं हो सकते । कंपनी से एक नई प्रकार की अटैची निकलती है, कोड, न. भरकर घुमाने वाली अटैची। कंपनी ने जो- No- भरकर अटैची बनाई, उसी न० को आप लगाओ तो खुल जाएगी। वैसे ही गणधरों के द्वारा की गई स्तुति से सारे विश्व को डायरेक्ट कोड नं. मिल रहे हैं। वहीं स्तुति यदि आप भी करोगे तो ओल वर्ल्ड के चित्त को हरण करने वाले बन जाओगे। यह महत्वपूर्ण बात इस स्तुति से जुड़ी हुई है। इस भक्तामर स्तोत्र- की स्तुति करने से तीन लोक में शान्ति होगी। अरे! अपना- शरीर भी एक लोक है। ऐसा आचारांग सूत्र में आता है। शास्त्रों में कहा जाता है कि लोक का आकार नाचते हुए भोपे की तरह होता है, अपने शरीर में भी तीन लोक होते है- ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक, अधोलोक। कमर तक अधोलोक, गले तक मध्यलोक और उपर उर्ध्वलोक। अपने शरीर में भी कई बीमारियों पैदा होती है, एक-2 रोम में पौने दो-दो रोग होता है, पूरे शरीर में साढ़े तीन करोड़ – रोम होते है। इस प्रकार हमारे शरीर में सवा पाँच करोड़ रोग उत्पन्न हो सकते है। आज तो एक चीटीं काट देती है तो हमारा ध्यान तब तक उधर ही जाता है जब तक वह काटा हुआ – ठीक न हो जाए, इन बीमारियों को हरण करने के लिए कहा है। तुम भगवान की स्तुति करो! णमोत्थुणं के पाठ से यही शाश्वत है ।
‘भक्तामर में सारे तीर्थंकर ही प्रथम होते हैं। वे- “किसी के शिष्य नही होते हैं। वे स्वयं ही वैरागी बनते है, स्वयं ही दीक्षा लेते हैं। अतः सब ही प्रथम तीर्थंकर होते हैं। प्रथम जिनेन्द्र- ऋषभदेव नहीं है। यह लोगों की धारणा बन गई है, यदि भक्तामर स्त्रोत की रचना ऋषभदेव के लिए की गई होती तो उसमें उनकी बेटियां- ब्राम्ही, सुन्दरी, श्रेयांस कुमार आदि का वर्णन आता। पर ऐसा भक्तामर में नहीं है। इससे स्पष्ट है कि भक्तामर में केवल ऋषभदेव की स्तुति नहीं अपितु सभी तीर्थंकरों की स्तुति की गई है। ऋषभदेव ने अजितनाथ को अजितनाथ ने अन्य तीर्थंकरों को दीक्षा दी। ऐसी बात नहीं कोई किसी का अनुगामी नहीं है। यदि सब ही प्रथम है ऐसा नहीं’ होता तो णमोत्थुणं में सबकी स्तुति क्यों की जाती, आइगराणं- शब्द क्यों आया? आइगराणं जिसका अर्थ है- आदि करने वाले। उसके बाद पाटपरंपरा में शिष्य परम्परा चलती है। जैसे सुधर्मा स्वामी उनके पाट पर प्रभव स्वामी बैठे। पर तीर्थकरों में ऐसा नहीं होता । सभी तीर्थंकर धर्म की आदि करने वाले हैं। अत: सब ही प्रथम जिनेन्द्र है। संस्कृत में प्रथ एक धातु हैं। प्रथ का अर्थ – होता है- प्रसिद्ध आदमी।, सबसे ज्यादा प्रसिद्ध आदमी तीर्थकर ही होते है। राजा महाराजा को कोई जाने या ना जाने, परन्तु तीर्थंकर को सभी जानते हैं।
अतः ऐसे प्रसिद्धतम व्यक्ति की स्तुति करने से हमारी बुद्धि पवित्र, स्वच्छ बन जाएगी, हम केवल भक्ताभर ‘की गाथाओं का उच्चारण ही नहीं करें अपितु यह प्रयास करें कि हमारी बुद्धि निर्मल कैसे हो?
अब आप पूरे श्लोक का अर्थ समझे।
यह: संस्तुत: सकल वांड्गमय तत्वबोधा-
दुद्भूतबुद्धि पटुभि: सुरलोकनाथै:
स्तोत्रैर्जगत्त्रितयचित्तहरैरुदारै:।
स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ।
जिनकी बुद्धि सकल शास्त्रों के वचनमय बोध से अत्यंत निर्मल हो गई। जो देवलोक के नाथ हैं। यह परिभाषा उन आकाशीय जो चार प्रकार के देव और 64 इंद्र बतलाए हैं। उनसे संबंधित नहीं है क्योंकि ना तो उनकी बुद्धि निर्मल हो सकती है न सकल वांगमय का पूर्ण बोध ही हो सकता। क्योंकि सारे देव इंद्र भौतिक धन-धान्य रूप जाल में उलझे रहते हैं। एक दूसरे से झगड़ते भी रहते हैं। उनकी बुद्धि कहां से निर्मल होगी। बुद्धि की निर्मलता तो आयंबिल की साधना के साथ स्वाध्याय करने से होती है। वह देवताओं में नहीं है अतः स्पष्ट है भाव देव है साधु और उनके नाथ हैं गणधर उनके द्वारा की गई स्तुति ही महत्वपूर्ण है वो है णमोत्थुणं। जो शाश्वत है सदा सर्वदा से ऐसा ही है । इसी के साथ वर्तमान में पुच्छिस्सुणं वीर स्तुति को भी माना जा सकता है। अतः प्रभु की भक्ति के लिए णमोत्थुणं के पाठ से स्तुति करना महा लाभदायक है।
18 दिसंबर पोषकृष्णा दशमी
आज पार्श्वनाथ जयंती कल्याणक भी है। कल्याण के निमित से की गई तप जप कि साधना एवं प्रभु के गुणों का स्मरण हमारी आत्मा को पावन करने वाला बनता है। पार्श्वनाथ भगवान पहले तीर्थंकर थे, अब सिद्ध हैं। उनकी भक्ति हमें शुद्धता तक पहुंचाए यही हमारा प्रयास हो।
धर्मप्रभावना
18 दिसंबर को भगवान पार्श्वनाथ की जयंती मनाई गई अच्छी उपस्थिति रही।
विदुषीप्रज्ञा साध्वीरत्ना श्री आस्था श्रीजी म.सा. ने उपसर्गहर स्तोत्र का विधिवत् पाठ कराया। पश्चात आचार्य प्रवर का प्रवचन हुआ ।
आज जालंधर वालों की ओर से भगवान पार्श्वनाथ की तस्वीर वितरित की गई।
जालंधर से जैन कांफ्रेंस के मार्गदर्शक श्री सुनील जी जैन, युवारत्न श्री विशाल जी जैन ने गुरु दर्शन एवं प्रवचन श्रवण का लाभ लिया। अरिहंतरत्न श्री रतनलाल जी जैन महिलारत्न श्रीमती शीला जी जैन ने मध्यान्ह में आकर धर्म चर्चा का लाभ लिया।
युवारत्न श्री विकास जी महिला रत्न श्री मनीषा जी पल्लवी जी अआदि सेवा में उपस्थित हुए।
अमृतसर से नररत्न श्री देवेंद्र जी का परिवार प्रवचन में उपस्थित हुआ ।
नररत्न प्रवीण जी करन जी जैन भी उपस्थित हुए ।
कपुरथला से युवारत्न श्री विनित जी ,सचिन जी,अरिहंत जी,विकास जी,सुब्रत जी जैन उपस्थित हुए ।
आप सबकी सेवा भावना सराहनीय है ।
श्री अरिहंतमार्गी जैन महासंघ सदा जयवंत हो