31 जनवरी अग्रनगर जैन स्थानक लुधियाना

ख्वाहिशें थम जांए
जैनाचार्य श्री ज्ञानचंद्र जी महाराज सा.
रास्ते कहां ख़त्म होते हैं, जीवन के सफर में ।
मंजिलें वही हैं, बस ख्वाहिशें थम जाए ।
आज शरीरक्षहाथ, पैर काम नहीं कर रहे हैं । काया की दौड़ रुकी है, पर मन ताकतवर है ।
बुजुर्ग आदमी का शरीर रुक गया, पर जबान नहीं और मन भी नहीं रुका ।
चखना और बकना चालू है ।
जब तक यह दौड़ बनी रहेगी, परेशानी बढ़ती रहेगी ।
बस ख्वाहिशें रोकने की जरूरत है तो मंजिल तो हर वक्त सामने खड़ी है । जहां बैठे हो वही आनंद मिल जाएगा ।
अगर हमें ऊंचे डॉक्टर निशुल्क देखने को मिल जाए तो हमारे बीमारी भी बढ़ जाएगी । हमारा ध्यान शरीर की तरफ जाएगा तो कोई न कोई बीमारी खड़ी मिलेगी।
आप अपने अंदर अच्छाइयां लाइये, वो अपने आप प्रकट हो जाएगी । जैसा कि नीतिकार कहते हैं
यदि संती गुणा पुंसां
विकसन्त्येव ते स्वयंम्
न हि कस्तूरिका मोद:
शपथेन विभाव्यते ।
यदि आदमी में गुण है तो बाहर आएंगे ही ।
कस्तूरिका की सुगंध जताने के लिए शपथ खाने की जरूरत नहीं रहती । वह तो फैलेगी ही ।
हमारे देश के प्रथम राष्ट्रपति भी राजेंद्र प्रसाद जी, राधा कृष्ण जी, जाकिर हुसैन जी, अब्दुल कलाम जी आदि इतने अच्छे अनेक राष्ट्रपति हुए है, जो भले तन से जिंदा न हो पर गुणों से आज भी जिंदा है ।
वैसे भी तन से जिंदा रहने की कहां जरूरत है । तन तो रोगों का घर है ।
ज्यादा जिंदा रहेगा तो और परेशानियां बढ़ाएगा ।
अतः तन की तरफ ध्यान न देकर आत्मा की अमरता जगाईये ।
हम देश के लिए इतना अच्छा काम न कर सके तो कम से कम परिवार, पड़ोसी और समाज के लिए तो इतना अच्छा काम कर जायें कि उनके जेहन में तो आप जिंदा रहेंगे ।
एक व्यक्ति ने हमें बतलाया कि हम भी स्कूल बनाना चाहते हैं, क्लीनिक भी खोलना चाहते हैं ।
क्यों?
वो बोले ! जब किसी पूर्वज ने स्कूल बनाई तो हमें पढ़ने को मिला, हमारा इलाज हुआ तो हम भी समाज के लिए कुछ करें ।
ऐसा सबका विचार होना चाहिए।
घर में भी कोई ऊंच-नीच हो जाए तो उसे भी क्षमा, सरलता से ठीक किया जा सकता है ।
एक गाँव में बिहारी लाल और रामजीदास दो सगे भाई रहते थे,
रामजीदास छोटे थे। दोनों के पत्नियाँ थी और दोनों के ही दो-दो लड़के थे। परस्पर सारे परिवार में बहुत प्रेम था। जेठानी-देवरानी भी आपस में सगी बहनें जैसी रहती थी। पूरा परिवार एक दूसरे पर जान छिड़कता था। कुल मिलाकर आपसी सौहार्द बहुत अच्छा था।
श्री बिहारीलाल जी बड़े होने के नाते घर के मालिक थे। चारों
बच्चों को वे ही सम्भालते, उनके लिए कपड़े बनवाने, फल मिठाई लाने, पढ़ाई की व्यवस्था करने आदि सब कार्य बड़ी दिलचस्पी से करते । घर की तथा बच्चों की ओर से रामजीदास निश्चिन्त थे।
बिहारीलाल के दोनों बालकों का जैसा पिताजी पर अधिकार था, ठीक वैसा ही रामजीदास के दोनों बालकों का ताऊजी पर। बिहारीलाल भी किसी प्रकार का भेद-भाव का बर्ताव नहीं करते थे। चारों बच्चों के लिए सब चीजें समान आती। घर में रामजीदास की पत्नी के लिए भी, जो कुछ आवश्यक होता, जेठ जी ही सब करते और उनके किसी बर्ताव से रामजीदास की पत्नी को कभी कोई शिकायत नहीं हुई। रामजीदास दुकान का काम देखते व घर की सारी देखभाल बिहारीलाल करते थे।
एक दिन अवकाश था, दुकानें बन्द थी। अतएव रामजीदास घर पर ही थे। मकान के बाहर के आंगन में एक कुर्सी पर बैठे कुछ पढ़ रहे थे। चारों बालक खेल रहे थे। बिहारीलाल बच्चों के लिए फलादि लाने बाजार गये थे। बच्चे भी बिहारीलाल की इन्तजार कर रहे थे। इतने में तो बिहारीलाल जी आ ही गये। वे एक झोले में तो घर के लिए सब्जियाँ आदि लाये थे ओर दूसरे झोले में आठ केले और आठ ही आम लाये थे। उनके आते ही रामजीदास बड़े के सम्मानार्थ कुर्सी से उठकर एक ओर खड़े गये। बिहारीलाल सब्जी वाले झोले को किनारे, रखकर दूसरा फल वाला झोला हाथ में रखकर कुर्सी पर बैठ गये।
चारों बालकों ने देखा पिताजी आ गये तो चारों खेलना छोड़कर फलों के लिए बिहारीलाल के समीप आकर फल मांगने लगे। रामजीदास बच्चों की उत्सुकता देखने लगे। बिहारीलाल का उस ओर कोई ध्यान नहीं। था। वे झोले में से फल निकाल रहे थे, बच्चों को देने के लिए। केले तो एक समान थे। बिहारीलाल ने झोले से निकालकर दो-दो केले चारों बालकों को दे दिये। अब रहे आठ आम। आमों में चार कुछ घटिया तथा छोटे थे। चार कुछ बढ़िया व मोटे थे। बिहारीलाल ने झोले से आम निकाले। चारों बच्चे लेने के लिए हाथ फैलाये खड़े थे।
बिहारीलाल के बच्चों के नाम थे मदन व मटकू और रामजीदास के लड़कों के नाम थे मोहन तथा केसू। बिहारीलाल के चार आम एक हाथ में थे, चार दूसरे में। बच्चे निर्दोष भाव से लपके। मदन तथा मटक जिस हाथ की ओर लपके, उसमें घटिया छोटे आम थे। मदन तथा मटक को झटक कर बिहारीलाल अलग हटाने लगे। वे नहीं हटे, तब दूसरे बढ़िया बड़े आम वाले हाथ को बिहारीलाल ने मोहन तथा केसू की ओर से हटाकर यों घुमाया कि जिससे मोहन व केसू उन आमों को न ले सकें और घटिया आम वाले हाथ को उधर फिराकर मोहन- केसू को वे आम दे दिये और मदन – मटकू को बढ़िया वाले दे दिये।
रामजीदास बड़े कौतुहल से सर्वथा निर्दोष भाव से बच्चों का खेल देख रहे थे, परन्तु बड़े भाई बिहारीलाल की इस बात को देखकर रामजीदास के मन में बड़ा क्षोभ हो गया। घटिया वाले आम स्वाभाविक ही उस बच्चे मोहन तथा केसू को दिये होते और बढ़िया वाले आम भी सहज ही मदन-मटकू को मिल जाते तो जरा भी बुरी बात नहीं थी पर बिहारीलाल की आज यह स्पष्ट चेष्टा हुई कि बढ़िया वाले आम के हाथ उन्होंने जान-बूझकर मोहन केस के सामने से हटाकर अपने बच्चे मदन-मटकू को दिये और मोहन-केसू को घटिया आम वाला हाथ उनकी ओर घुमाकर दिया। रामजीदास ने जान लिया कि आज भाई के मन में भेद-बुद्धि आ गई है।
लड़के तो आम लेकर चले गये। उन्हें तो घटिया-बढ़िया का कोई ज्ञान था नहीं, परन्तु हाथ घूमाकर देने की आज कुछ नयी-सी बात तो बच्चों को भी लगी। मदन-मटकू समझ नहीं सके कि बाबूजी ने हम जो आम ले रहे थे, वे न देकर दूसरे क्यों दिये ? इसी प्रकार मोहन-केसू को भी कुछ अचरज सा लगा पर उन निर्दोष बच्चों के मन में किसी पाप-भावना का ध्यान नहीं आया, रामजीदास के मन में दूसरा भाव आ गया और बच्चों के दूर चले जाने के बाद रामजीदास ने आकर भाई बिहारी जी से कहा-
भाईजी! हमें आज से बँटवारा करके अलग-अलग हो जाना है और इसमें कोई भी कठिनाई नहीं होगी, क्योंकि आप अपनी इच्छा से मुझे जो कुछ देंगे, वही मुझे हृदय से स्वीकार होगा।
रामजीदास की बात सुनकर बिहारी जी चौंके। उन्हें अपनी नीयत की बात तो याद आ गयी, पर वे समझ रहे थे कि रामजीदास ने क्या मेरी ओर देखा होगा और क्यों इसे कोई संदेह हुआ होगा।
बिहारीलाल जी बोले- भैया ! क्या बात हो गयी, आज तुम ऐसी दिल दुखाने वाली बात क्यों कह रहे हो?
रामजीदास ने नम्रता से कहा- भाई जी ! आज एक ऐसी अनहोनी बात मैंने देखी, जिसकी मेरे मन में कभी कल्पना भी नहीं थी। बच्चों को आम देने के समय मेरी नजर इधर चली गयी। बात तो मामूली थी, पर मैंने उस पर जान लिया कि आज भाईजी के मन में अपने बच्चों तथा मेरे बच्चों में भेद आ गया है और जब भेद आ गया, तब फिर साथ रहने में मजा नहीं है। इसी से मैंने अलग होने की बात कही है।
बिहारीजी की आँखों में आँसू आ गये। अब वे अपनी करनी पर मन ही मन पछताने लगे। उसने कहा-सच्ची बात है भैया! मेरी बुद्धि मारी गयी थी, मैंने जो पाप कभी नहीं किया, वह आज कर बैठा। मेरी बुद्धि मे भेद आ गया। भाई इसका दण्ड मुझे भगवान देंगे। तुमसे क्षमा मांगने लायक तो मैं रहा नहीं। तुम तो मुझ पर विश्वास करके अपने स्त्री बच्चों की सारी देख रेख का भार मुझे देकर निश्चिन्त हो गये थे। मैंने तुम्हारे साथ विश्वासघात किया है। यह पाप छोटा नहीं है परन्तु भाई! तुम महान हो, मुझ पापी को जीवन दान दो। यदि तुम अलग हो गये, तो मेरे प्राण भी देह से अलग हो जायेंगे। इस पाप का तो यही प्रायश्चित है। अब यदि मुझे मारना है तो तुम,सभी कुछ लेकर अलग हो जाओ,मुझे कुछ नहीं चाहिये ।
यों कहकर बिहारीजी जोरे-जोर से रोने लगे। भाई के सच्चे पश्चाताप युक्त आँसुओं की धारा का रामजीदास के हृदय पर विलक्षण प्रभाव पड़ा। उसके मन का सारा क्षोभ दूर हो गया. उसने बड़े भाई के पैर पकड़ लिए तथा रो कर भाई का दिल दुखाने के लिए क्षमा मांगी।
इतने में बच्चे भी वहीं आ गये। वे सभी आश्चर्य से देख रहे थे। आज ताऊजी और चाचाजी रो क्यों रहे हैं? बिहारी जी की स्त्री भी अचानक वहाँ आ गई। रामजीदास की पत्नी भी दूर खड़ी होकर सब देखने-सुनने लगी। दोनों ही स्वभाव से अच्छी व सरल थी और सगी बहनों के समान बड़े प्रेम से रहती थी। सब बातें जानकर दोनों को भी बड़ा दुःख हुआ। वे भी रो पड़ी। पवित्र प्रेम के आसुँओं ने सदा के लिए सभी मलीन भावों को मूलोच्छेद ही कर दिया। सारा परिवार परम सुखी हो गया। और पूर्व की भाँति आनन्द से रहने लगा। सच्चे हृदय से पश्चाताप करने से पापों का भी नाश हो जाता है। यह बात सिद्ध हो गई कि सुख त्याग में हैं, स्वार्थ में नहीं।
नीतिकार भी कहते हैं-
संशयमनारुह्य नरो भद्राणि पश्यति ।
जो संसय रहित होता है, वो खुशियां पाता है ।
अतः बहस पालने की बजाय समाधान करना सीखे ।
धर्म प्रभावना
31 जनवरी को आचार्य प्रवर अग्रनगर स्थानक में ही प्रवचन दिए ।
मौसम में शीतलता, कमोवेश वर्षा आती रही ।
आज आचार्य प्रवर ने गुणों से जिंदा रहने की बात समझाई ।
तन से अधिक जिंदा रहने वाला सुखी नहीं होता । जो गुणों से जिंदा हो वही इस भव परभव सुखी रह सकेगा ।
जालंधर गौशाला को प्राप्त एक गुप्तदानी ने 3100 रुपये दिए धन्यवाद ।
श्री अरिहंतमार्गी जैन महासंघ सदा जयवंत हों