27 दिसंबर कपुरथला
अद्भुत विभूति है अरिहंतों की
जैनाचार्य श्री ज्ञानचन्द्र जी म.सा.
इत्थं यथा तव विभूति- रभूज् – जिनेन्द्र्र !
धर्मोपदेशन – विधौ न तथा परस्य।
यादृक् – प्र्रभा दिनकृत: प्रहतान्धकारा,
तादृक्-कुतो ग्रहगणस्य विकासिनोऽपि
जैसी विभूति आपकी है वैसी किसी की नहीं है ।
धर्मोपदेश देने की विधि भी आप जैसी किसी की नहीं है । क्योंकि जैसा प्रकाश, दिनकृत सूर्य का है, वैसा किसी दूसरे किसी भी ग्रह और ताराओं का कहां देखा जाता है ।
आचार्य श्री मानतुंग ने तीर्थंकर प्रभु की विभूति का वर्णन करते हुए कहा है कि ऐसी विभूति याने ऐसा व्यक्तित्व किसी अन्य का हो ही नहीं सकता ।
क्योंकि आप 64 इंद्रों से वंदनीय हो और 34 तथा 35 वचनातिशय से सुशोभित हो ।
जिनका हम अलग से वर्णन कर रहे हैं ।
वैसे भी आपकी विभूति,अहिंसा, सत्य, संयम और अनेकांत जैसी उत्कृष्ट संपदाओं से संपन्न होने से उसका दुनियां में अलग ही प्रभाव है ।
अंदर में जितना विकार नहीं होगा, चेहरे पर उतना ही अधिक आकर्षण बढ़ता चला जाएगा।
जिस प्रकार छः महीने का बच्चा सभी को आकर्षक लगता है हर कोई उसे देखना, उससे बोलना, बल्कि उसे गोद में उठाना चाहता है ।
क्योंकि उसके मोह- विकार का अंश, नाम मात्र का होता है ।
ज्यों ज्यों वही बच्चा बड़ा होता है तो मोह बढ़ता जाता है ।
चेहरा विकृत होता जाता है जवान होने तक तो बचपन की सौम्यता ने विकार का रूप ले लिया होता है ।
तीर्थंकरों के अतिशय का मोटा कारण है कि उनका तन-मन सभी पूरी तरह निर्विकार हो गए थें ।
इसलिए उनके चेहरे की सौम्यता, संसारी जीवों से लाख गुणी आकर्षक बन गई थी ।
लाख गुणी तो एक ओपम्य व्याख्या है बल्कि तीर्थंकरों की तुलना किसी भी ऊंचे से ऊंचे संसारी जीवों से नहीं की जा सकती ।
कहां वितरागता और कहां छद्मस्थता ।
कोई बराबरी नहीं ।
धर्मोपदेश देने का तरीका भी आपका अत्यंत विलक्षण है ।
क्योंकि आपका ज्ञान, संपूर्ण है पूरा है ।
आप श्रोताओं की मानसिकता को समझते हुए उपदेश देते हैं, जो सीधा उनके जीवन को परिवर्तन करने वाला होता है ।
जिस प्रकार अर्जुन माली को उपदेश दिया तो वो बदल गया। एवंता कुमार जैसे बच्चे को उपदेश दिया तो वो भी साधु बन गया ।
इंद्रभूति जी आदि 11 घोर अहंकारी विद्वानों को उपदेश दिया तो वो सब के सब बदल गए ।
मेघ कुमार को दो शब्द बोले तो उसे जातिस्मरण का ज्ञान कराकर उनकी आत्मा को तार दिया ।
तीर्थंकर प्रभु, वचन से ही नहीं मन से भी उपदेश देते हैं । जो मन से पूछता है तो मन का प्रश्न का जवाब मन से दे दिया जाता है ।
तीर्थंकरों के उपदेश से बिगड़े से बिगड़े व्यक्ति तिर जाते हैं ।
न चाहते हुए भी कोई उनका उपदेश सुन ले तो भी तिर जाता है।
जैसा कि रोहिणेय चोर के साथ हुआ ।
भले तीर्थंकर भौतिक तन से सामने न हो परंतु उनका उपदेश तो आज भी शास्त्रों में उपस्थित है।
उनका स्वाध्याय करके या उसे सुनकर भी तिरा जा सकता है।
वितरागियों के उपदेश में ही यह क्षमता है कि वो बड़े से बड़े पापी को भी तार सकते हैं ।
वैसी क्षमता छद्मस्थ साधकों में नहीं हो सकती ।
छद्मस्थों को तो वीतराग वाणी के अनुसार धर्मोपदेश करना होता है।
धर्म प्रभावना
27 दिसंबर को कोहरे के अधिकता के कारण प्रवचन नहीं हुआ । मध्यान्ह में जालंधर से धर्मपत्नी श्री प्रवीण कुमार जी जैन,श्री विनय कुमार जी गोल्डी जी,श्री धर्मवीर जी अनु जी, सुनीत जी आदि अनेक भाई-बहन दर्शन सेवा के लिए आते चले गए।
मध्यान्ह में धर्म चर्चा हुई ।
श्री अरिहंतमार्गी जैन महासंघ सदा जयवंत हों