17 दिसंबर शनिवार होटल हवेली जंडियाला गुरु
तीन छत्र प्रभु के
जैनाचार्य श्री ज्ञानचंद्र जी म.सा.
प्रभु सुमिरन में सार…….
किश्ती को पार लगाने के लिए प्रभु का स्मरण आवश्यक माना गया है । बल्कि यह माना जाए कि सबसे पहला काम प्रभु का स्मरण है । क्योंकि व्यक्ति कोई भी काम करता है तो सबसे पहले मंगलाचरण करना चाहता है ।
यह धारणा भारतीय संस्कृति में प्राय: सभी में मिलेगी । यह बात अलग है कि मंगलाचरण करने के तौर तरीके अलग हैं । कोई कृष्ण को मानता है, कोई महावीर को मानता है । अलग-अलग देश, प्रांतों में अलग-अलग मिलते हैं।
सभी चाहते हैं कि हमारा काम सही हो । इसलिए हम मंगलाचरण करें। ताकि हमारी भी किश्ती पार लगे । जितने भी मंगलाचरण किए जा रहे हैं । वे सब सार्थक है या नहीं । यह चिंतनीय है । वह मंगलाचरण किस काम के जिसे, एक माने दूसरा नहीं । एक महावीर को मानता है,दूसरा नहीं । धार्मिक क्षेत्र भी है उसका विरोधी भी है।
हर धर्म के विरोध में विरोधी जनता खड़ी है । भगवान महावीर के विरोध में भी भारी पब्लिक गौशालक की खड़ी रही है, फिर भगवान किस काम के ।
बात ठीक है इसलिए वीतराग देवों ने नाम मिटाने शुरू कर दिए।
धर्म की आदि चाहे ऋषभदेव ने की हो या अन्य तीर्थंकरों ने यह बात महत्वपूर्ण नहीं । बस आप अरिहंत को पकड़ो क्योंकि एक का नाम आते ही पक्ष- विपक्ष खड़ा होता है । अतः नाम रहित गुणात्मक पक्ष सामने है । गुणात्मक मंगलाचरण सर्वमान्य व सही मंगल होता है । पानी,जैन, क्रिश्चन आदि कोई भी पिए सभी की प्यास मिटेगी । वैसे ही मंगलाचरण कोई भी करें सभी का मंगल होगा ही होगा । यह बात सिर्फ जैन शास्त्रों में विशेष है अन्य में नहीं ।
क्योंकि जैन धर्म अनेकांतवाद को मानता है। इसी व्यापक दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए आचार्य मानतुंग ने भक्तामर स्तोत्र की रचना की । यह स्तोत्र सार्वजनिक व सर्वमान्य है।
पर हमने इस बात को पकड़ लिया कि भक्तामर में ऋषभदेव की स्तुति की गई है,ऐसा नहीं है। यह सभी अरिहंतों की स्तुति है।
कल्याण मंदिर में भगवान पार्श्वनाथ की स्तुति की गई है।
इसलिए उसमें कमठ का वर्णन आया है । पर भक्तामर में ऋषभदेव भगवान के परिवार, उनकी साधना, 12 महीनें की तपस्या आदि किसी का वर्णन नहीं है । बस प्रथम शब्द है, किंतु सभी तीर्थंकर अपने अपने समय में प्रथम है,भक्तामर स्तोत्र की रचना सभी तीर्थंकरों को लक्ष्य में रखकर की गई है । किसी भी तीर्थंकर को कोई उपदेश नहीं देता, केवल ज्ञान भी स्वयं ही पाते हैं । भक्तामर स्तोत्र में प्रभु के छत्रों की रचना बताई गई है ।
छत्रत्रयं तव-विभाति शशांक कान्त-मुच्चै:स्थितं स्थगितभानुकरप्रतापम् ।
तीर्थंकर के आठ प्रतिहार्य में एक प्रतिहार्य बताया है कि वे तीन छत्र धारण करते हैं । उनके सिर पर तीन छत्र चमक रहे हैं । प्रभु आपके ऊपर यह तीन छत्र शशांक कांत-चंद्रमा की क्रांति के समान शीतलता प्रदान करने वाले हैं।
ये कार्य के तीव्र ताप को उनके छत्र रोक देते हैं ।
मुक्ता – मोतियों का प्रकर जाल लगा है। उन समूह के कारण छत्रों की शोभा बढ़ रही है । वे प्रख्यापित कर रहे हैं आपके परमेश्वरत्व रूप को । यह तो शाब्दिक अर्थ है पर क्या यही अर्थ है । ऐसे प्रतिहार्य तो कोई भी बता सकता है, ऐसे छत्र लगाने मात्र से क्या कीर्ति तीन लोक में प्रख्यापित हो जाएगी, नहीं वे छत्र सामान्य नहीं होते वे छत्र तो ऐसे हैं जो तीन लोक के आतप को रोक दें,ऐसे आपके 3 छत्र हैं – सम्यक् ज्ञान, सम्यक दर्शन, सम्यक चारित्र, आपके पास ज्ञान में, केवल ज्ञान, दर्शन में क्षायिक समकित,चरित्र में यथाख्यात चारित्र । लास्ट स्टेज होती है, इसके बाद कोई स्टेज बाकी नहीं रहती ।
छत्रं त्रयं…….ये तीन छत्र आपकी आत्मा में टिके हैं । जो पूरे वर्ल्ड में क्या हो रहा है उसकी पूरी जानकारी रखते हैं, अनंत ज्ञान आपका इतना जबरदस्त छत्र है जिसके द्वारा कौन आदमी क्या कर रहा है ? क्या सोच रहा है? इन सबकी जानकारी आपको हो रही है । दूसरा आपके पास अनंत दर्शन है जिसके द्वारा आप सारी दुनिया को देख रहे हैं । पहले आप सबको जान रहे हैं फिर सबको देख रहे हैं, यह भी आपके पास है, तीसरा छत्र आपके पास अनंत चरित्र का है । आपका विल पावर इतना स्ट्रांग है कि दुनियां की सारी शक्ति एक तरफ लग जाए तो भी तीर्थंकर की शक्ति अधिक होती है । चक्रवर्ती, बलदेव,वासुदेव से तीर्थंकर की शक्ति अधिक होती है । इतनी अधिक शक्ति होती है कि वे संपूर्ण लोक को, गेंद की तरह अलोक में फेंक दें । यह क्या, वे चाहे तो कई गुणा लोक को आलोक में फेंक सकते हैं । इस लोक की तो बिसात ही क्या है । ऐसी शक्ति अनंत ज्ञान, दर्शन,चरित्र में रही है
ऐसी शक्ति, ऐसे छत्र दुनियां में किसी व्यक्ति के पास नहीं है ।
यह दुनियावी लोग यदि अपने छत्र खड़े कर दे तो उससे कोई प्रभाव नहीं पड़ता । पर आपके छत्रों में अलग विशेषता रही हुई है। इसलिए दुनियां की ताकत आपको व आपके छत्रों को प्रभावित नहीं कर सकती ।
आप चंद्रमा की तरह शीतल हो, क्योंकि चंद्रमा की चांदनी में यदि आदमी घंटों बैठ जाए तो उकताता नहीं है । लेकिन सूर्य की गर्मी में यदि आदमी बैठ जाए तो वह थोड़ी ही देर में उकता जाता है।
इसलिए कहा कि आप चंद्रमा की तरह शीतल हो,सूर्य की तरह नहीं।
आज व्यक्ति के भीतर भी ज्ञान, दर्शन, चारित्र की अच्छी एनर्जी इकट्ठी हो रही है पर उसका सदुपयोग नहीं होगा तो उसका रिएक्शन हो जाएगा । आप अपनी एनर्जी ब्रम्हचर्य, संयम, तप, ज्ञान, ध्यान में लगायें यदि इसमें एनर्जी नहीं लगी तो वह क्रोध, मान, माया और लोभ में चली जाएगी । अर्थात विपरीत परिणामों में चली जाएगी।
आप में यदि एक गुण है क्षमा , तो सारे गुण अपने आप पच जाएंगे । यदि आपमें क्षमा है तो आप सभी को पचा सकते हैं, घोड़े को अंगूर का रस पिला दिया जाए तो वह पच जाएगा, गधे को यदि अंगूर का रस पिलाया जाए तो वह आऊं-2 करेगा । वह रस पचेगा नहीं,किन्तु हे प्रभु आपके पास इतनी पात्रता है कि सभी गुण आप में पच गए, आपके छत्रों की तरह दूसरों के छत्र नहीं हैं ।
आपके छत्र भानु के प्रताप को रोक लेते हैं । दुनिया में सबसे ऊंचा क्या दिखता है- सूर्य ।
जो सब जगह फैल रहा है ।
सबको प्रकाश दे रहा है । यह छद्मस्थों की दृष्टि है, पर आपके छत्र तो इतने पावरफुल है कि दुनियां में जितने भी प्रदूषण है, विरोध है, आतप है वे भी आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकते ।
दूसरा मतलब है कि सूर्य जितना ऊंचा आदमी भी आ जाए तो भी वे आपके तेज को रोक नहीं सकता ।
भगवान महावीर के साथ यह आश्चर्य घटा। भगवान पर गोशालक की तेजोलेश्या का प्रभाव पड़ा । भगवान को खून के दस्त लगने लग गई । यह अच्छेरा हुआ था । जिनके चरणों में देवता इंद्रादि झुकते है, उन पर गोशालक का क्या जोर चले पर कर्मों का कुछ योग ही ऐसा था, इसलिए ऐसा हुआ । तीर्थंकर के अनंत ज्ञान, दर्शन, चरित्र का बुलेट पहना रहता है जिससे कोई भी उनका बिगाड़ नहीं कर सकते।
मुक्ताफल- मोतियों का प्रकर जाल आपके छत्र के चारों तरफ लटक रहा है जो आपके छत्र की शोभा बढ़ा रहा है, लोग मूर्ति खड़ी कर देते हैं । उसके चारों तरफ मोती लटका देते हैं, ऐसा तो कोई भी श्रीमंत कर सकता है, पर वे गुण उनमें नहीं जो आपके भीतर है । खंति, मुत्ति आदि 10 यतिधर्म, 1008 उत्तम लक्षण मोतीवत् सुशोभित हो रहे हैं । जो किसी भी व्यक्ति में नहीं है और विश्व के किसी भी शरीर में नहीं है । ऐसे शरीर को, ऐसे विशिष्टत्तम गुणों को धारण करने वाले आप हैं।
प्रख्याति- आपके तीनों छत्र तीन जगत में आपके परमेश्वरत्व रूप की प्रख्याति फैला रहे हैं । वह यह बताते हैं कि इन तीन छत्रों के नीचे जो आकर बैठ गया उसके ऊपर सूर्य का प्रभाव पड़ेगा ही नहीं, पूरे विश्व में यदि विरोध हो रहा हो और व्यक्ति आपके छत्रों के नीचे खड़ा हो जाए तो उस पर कोई असर पड़ने वाला नहीं है ।
दुनिया की कोई ताकत उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता ।
जैसे चमरेन्द्र ने जब ध्यान लगाया तो देखा मेरे ऊपर शक्रेन्द्र बैठा है, यह क्या ? मेरे से बड़ा कोई हो नहीं सकता, इसे कहते हैं एनर्जी का रियेक्शन। उसने मन में विचार किया कि मुझे शक्रेन्द्र को नीचे गिराना ही गिराना । इस हेतु उसने मंगलाचरण किया । उसके बाद अवधि ज्ञान के द्वारा उपयोग लगाया कि भगवान कहां है । क्योंकि उनकी शरण लिए बिना में शक्रेन्द्र को हरा नहीं सकता, आप भी उपयोग लगाते हैं- काला घोड़ा-फोन घुमाते हैं,फोन के द्वारा ही घर बैठे ही सारा काम कर लेते हैं । उसने भी उपयोग लगाया तब पता चला कि भगवान भरत क्षेत्र में सुसुमारपुर में अशोक वृक्ष के नीचे ध्यान लगाकर खड़े हैं ।
चमरेन्द्र हजारों योजन की यात्रा पार करके जहां भगवान थे वहां पहुंच गया,वह ऊपर देवलोक में नहीं गया । अपितु नीचे आया, भागा-भागा, कोई सोचते हैं की क्रिया लगती है पर नहीं । वह चमरेन्द्र तो शरण लेने के लिए तुरंत गया । दर्शन करने में क्रिया लगती है । ऐसे बातें करने वाले तथाकथित महासाधक एवं आचार्यों के पास फिर किस बात की भीड़ लगती है । सोचने वाली बात है । क्या यह मौन समर्थन नहीं है ? अगर समर्थन नहीं मानते तो फिर शास्त्रीय विधि को सामने रखने का प्रसंग है ।
चमरेन्द्र, देवलोक से भागकर दर्शन करने गया । तीर्थंकरों के दर्शन,देशना सुनने, देवताओं के विमानों की दौड़ लगती रही है ।
अतः यथार्थता के परिपेक्ष्य में चिंतन अपेक्षित है ।
प्रभु तो ध्यान में थे,चमरेन्द्र दूर से ही दर्शन करके चला गया ।
उसने भगवान के ध्यान में विग्न नहीं डाला । आज के लोगों को भी यह समझने का प्रसंग है ।
क्रिया से ज्यादा दर्शन करना अधिक प्रभावी है ।
भगवान की शरण में कोई भी व्यक्ति आ जाता है । उसकी सारी आपत्तियों, संकटों का समाधान हो जाता है । तीन लोक में- किसी भी कोने में भक्त बैठा हो और सच्चे मन से ध्याता हो तो भगवान उसकी रक्षा करते हैं । तीन छत्र बड़े-बड़े है । तीनों लोकों में फैले हुए है,लोग सोचते हैं, छत्र छोटे-छोटे हैं पर नहीं । अनंत ज्ञान, दर्शन, चारित्र के छत्र बड़े-बड़े हैं । पूरे लोक में फैले हुए है,एक बार गोशालक आहार मांगने गया । किसी घर में गोचरी नहीं मिली । उस समय भगवान छद्मस्थ थे,गोशालक को गोचरी नहीं मिली उसे गुस्सा आ गया वह बोला अगर भगवान महावीर का तप संयम सच्चा हो, मेरे गुरु सच्चे हो तो उनके प्रभाव से मकान जल जाए ।
एक वाणव्यंतर जाति के देवता ने सोचा अगर मकान नहीं जला तो भगवान की बदनामी होगी । इसलिए उसने मकान को जला दिया।
अतः हम भी परमात्मा की शरण में जाने का प्रयास करें तो हम भी दुनिया के संकटों से बच जाएंगे।
आपको यदि आपके परिवार, समाज राष्ट्र की सुरक्षा करनी है तो आप जाप करिए,इन तीनों छत्रों के द्वारा आपकी सुरक्षा हो जाएगी ।
अंत में यही समझाना है कि
छत्रत्रयं- तीर्थंकरों के ऊपर तीन छत्र,इस बात के भी द्योतक है कि वे अधोलोक, मध्यलोक,उर्ध्वलोक तीनों के नाथ हैं । इसीलिए णमोत्थुणं में लोगनाहाणं आया है ।
स्तुतिकार ने आगे बतलाया कि
स्थगित भानु कर प्रतापम्
याने कि भानु की किरणों के तेज ताप को रोक दिया है ।
इससे साफ है कि आपके तीनों छत्र के नेटवर्क से जिसने अपने मन का नेटवर्क जोड़ दिया उसकी आत्मा सदा सुखी रहेगा ।
चाहे विश्व के किसी कोने में बैठा हो ।
वे तीनों छत्र विभिन्न मोतियों के जाल से विवृद्ध शोभा,शोभा को बढ़ा रहे हैं ।
बल्कि आपके तेजस्वी असंख्य गुण, उन मोतियों को अपनी औकात से भी लाखों गुणा अधिक चमका रहे हैं ।
जैसे डिब्बी तो एक हजार रूपये की होगी पर उसमें कोहिनूर है तो जैसे उसकी कीमत बढ़ जाती है।
वैसे ही आपके छत्र के छांव में आने वाली की भी कीमत बढ़ जाती है ।
अतः प्रभु की भक्ति करने वाला तिर जाएगा ।
धर्म प्रभावना
16 दिसंबर रात्रि में धर्मवीर नररत्न श्री पदम जी जैन के यहां रात्रि प्रवचन का प्रसंग आया ।
आचार्य प्रवर ने क्रोध रोकने का उसे शांत करने का तरीका बतलाया ।
इसी तरह अच्छे अच्छे कार्यों का फल कैसे मिलता है यह समझाया।
वास्तुदोष हो या कर्मों का दोष उसे कैसे टाला जाए यह समझाया ।
जिंदगी को जीने के लिए परिवार का परस्पर व्यवहार कैसा हो यह समझाया ।
मरणोपरांत भी आदमी जिंदा है यह बतलाया ।
समझाने की शैली इतनी मार्मिक थी कि सब के गले उतर गई ।
17 दिसंबर को सूर्योदय के बाद विहार प्रारंभ हुआ ।
उस कालोनी के उदारमना भाई श्री विजय जी जिस प्लॉट पर धर्म स्थानक बनाने जा रहे हैं उनके आग्रह पर उनके वहां पगलिए किए । उनको मंगल पाठ सुनाया और विहार प्रारंभ हुआ। मौसम ठंडा होने पर भी अनुकूल रहा ।
होटल हवेली पर आने के साथ ही हवेली के मालिक गुरुभक्त श्री सतीश जी के निर्देशन पर स्टाफ ने तुरंत संयमानुकूल व्यवस्था का विवेक समझा और सेवा में लग गए । आपकी भावना भक्ति श्रेष्ठ है । आचार्य प्रवर जंडियाला गुरु जैन स्थानक में पधार गए हैं
श्री अरिहंतमार्गी जैन महासंघ सदा जयवंत हों